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भोजप्रबन्धः

विक्रमार्क त्वया दत्तं श्रीमन्ग्रामशताष्टकम् ।
अर्थिने द्विजपुत्राय भोजे त्वन्महिमा कुतः ॥ १७ ॥
प्राप्नोति कुम्भकारो महिमानं प्रजापतेः ।
यदि भोजोऽप्यवाप्नोति प्रतिष्ठां तव विक्रम' ॥ १८० ॥

 हे विक्रमादित्य, तुम्हारे त्याग का वर्णन कैसे हो ?' तुम इसे उचित नहीं समझते थे कि कोई अभागा 'बरतन दो'--ऐसा आकर भी बोले, इतना पर्याप्त देना उचित समझते थे कि मँगता भविष्य में मँगता रह ही न जाय । 'श्रीमान् विक्रमादित्य, तुमने याचक ब्राह्मण पुत्र को एक सौ आठ गाँव दे दिये थे, भोज को आप जैसी महिमा कहाँ से प्राप्त हो ?

 हे विक्रमादित्य, यदि कुम्हार भी प्रजापति ब्रह्मा की महिमा प्राप्त कर सकता है, तो भोज भी आपके समान प्रतिष्ठा पा सकता है।'

 राजा--'लोके सर्वोऽपि जनः स्वगृहे निःशङ्कं सत्यं वदति । मय वान्येन वा सर्वथा विक्रमाप्रतिष्ठा न शक्या प्राप्तुम् ।

 । राजा ने सोचा-संसार में सभी लोग अपने घर में निःशंक हो सत्य कहते हैं । मैं अथवा अन्य कोई विक्रमादित्य की प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर सकता ततः कदाचित्कश्चित्कवी राजद्वारं समागत्याह-'राजा द्रष्टव्यः इति । ततः प्रवेशितो राजानं 'स्वस्ति' इत्युक्त्वा तदाज्ञयोपविष्टः पठति-

कविषु वादिषु भोगिषु देहिषु द्रविणवत्सु सतामुपकारिषु ।
धनिषु धन्विषु धर्मधनेष्वपि क्षितितले नहि भोजसमो नृपः ॥१८१।

 राजा तस्मै लक्षं प्रादात् । सर्वाभरणान्युत्तार्य तं च तुरगं ददौ । फिर कभी एक कवि राजद्वार में आकर वोला-'राजा का दर्शन चाहता हूँ।' तदनन्तर प्रविष्ट किये जाने पर राजा को 'स्वस्ति' यह कह कर उसके आज्ञा से बैठकर उसने पढ़ा--

 भूतल पर कवियों, वक्ताओं, भोगियों, शरीरधारियों, पैसे वालों, सज्जन के उपकारियों, घनियों, धनुर्धारियों और धार्मिकों में भोज के समान नरपाल नहीं है।

 राजा ने उसे लाख मुद्राएँ दी और उतार कर समस्त आभूषण और घोड़ा दिया।