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भोजप्रवन्धः

 राजा ने कुम्हार के मुँह से लोकोत्तर श्लोक सुनकर चमत्कृत हो उसे वह सब धन दे दिया।

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(१२ ) भोजस्य विक्रमादित्यसमं दानम्

 ततः कदाचिद्राजा रात्रावेकाकी सर्वतो नगरचेष्टितं, पश्यन्पौरगिरमाकर्णयंश्चचार । तदा क्वचिद्वैश्यगृहे चैश्यः स्वप्रियां प्राह-'प्रिये, राजा स्वल्पदानरतोऽप्युज्जयिनीनगराधिपतेर्विक्रमार्कस्य दानप्रतिष्ठां काङ्क्षते । सा किं भोजेन प्राप्यते। कैश्चित्स्तोत्रपरायणमयूरादिकवि- भिर्महिमानं प्रापितो भोजः । परन्तु भोजो भोज एव । प्रिये, शृणु।

आबद्धकृत्रिमसटाजटिलांसभित्तिरारोपितो यदि पदं मृगवैरिणःश्वा ।

मत्तेभकुम्भतटपाटनलम्पटस्य नादं करिष्यति कथं [१]हरिणाधिपस्य ।।१७७॥

 फिर कभी राजा रात में अकेला सब ओर नगर व्यापार देखता, पुर- वासियों की बातचीत सुनता विचरण कर रहा था। तभी एक वैश्य के घर में वैश्य अपनी प्रिया से बोला-'प्रिये, थोड़ा दान करके भी राजा उज्जयिनी नगर के अधिपति विक्रमादित्य को प्राप्त दान-प्रतिष्ठा की आकांक्षा करता है। क्या वह भोज को मिल सकी है ? कुछ स्तुति परायण मयूरादि कवियों ने भोज को महिमा प्राप्त करा दी है, परंतु भोज भोज ही है ।

 प्रिये, सुनो--

 बनावटी सटाओं मे परिपूर्ण खाल उढ़ा कर यदि कुत्ता मृगों के शत्रु सिंह के पद पर आरोपित कर दिया जाय तो वह क्या मदमत्त हाथियों की कुम्भ स्थली का विदारण करने के व्यसनी मृगराज का नाद कर सकेगा?

 राजा श्रुत्वा विचारितवान्--'असौ सत्यमेव वदति ।' ततः पुनः पुनर्वदन्तं शृणोति--

 राजा ने सुनकर विचारा---'यह ठीक ही कहता है ।' तब फिर उसे पुनः कहते हुए सुनने लगा-

'आपन्न एव पात्रं देहीत्युच्चारणं न वैदुष्यम् ।
उपपन्नमेव देयं त्यागस्ते विक्रमार्क किमु वर्ण्यः ॥ १७८ ।।


  1. सिंहस्येत्यर्थः।