ततो राजा बहुमूल्यानपि षोडशमणीस्तस्मै ददौ ।
जन्म स्थान है घड़ा, परिजन मृग, भोज पत्र के वस्त्र, वास कानन में, कंद मूल भोजन है-ऐसे साधन वाले मुनि अगस्त्य ने करसरोज के संपुट में रखकर जलनिधि को पी डाला । बड़े जनों की क्रिया सिद्धि पौरुष से होती है न कि साधन से । तो राजा ने बहुमूल्य सोलह मणियाँ भी उसे दे दी। .
ततस्तत्पत्नी प्राह राजा-'अम्ब, त्वमपि पठ।' देवी-
'रथस्यैकं चक्र भुजगयमिताः सप्त तुरगा |
राजा तुष्टः सप्तदश गजान्सप्त रथांश्च तस्यै ददौ ।
तत्पश्चात् राजा ने उसकी पत्नी से कहा-'माँ तुम भी पढ़ो ।' उस देवी ने पढ़ा-
रथ का चक्का एक, सांप की रस्सी में बँधे सात घोड़े, निराधार है पंथ चरणहीन है सारथि-रथ चालक, सूरज प्रतिदिन ही जाता है अन्त-भाग तक विस्तृत नभ के । बड़े जनों की क्रिया सिद्धि पौरुष से होती है, न कि साधन से । संतुष्ट राजा ने सत्रह हाथी और सात रथ उसे दिये ।
ततो विप्रपुत्रं प्राह राजा-'विप्रसुत, त्वमपि पठ' । विप्रसुतः-
'विजेतव्या लङ्का चरणतरणीयो जलनिधि- |
तुष्टो राजा विप्रसुतायाष्टादश गजेन्द्रान्प्रादात् ।
तब राजा ने ब्राह्मण पुत्र से कहा--'हे विप्रसुत, तुम भी पढ़ो। ब्राह्मण के बेटे ने पढ़ा-
लंका नगरी जेय थी, पयोनिधि चरणों से तिरना था, प्रतिपक्षी पुलस्त्य का बेटा रावण था, संग्राम भूमि में सहायक थे बंदर, पैदल मानव राम, उन्होंने संहारा सारा राक्षस कुल, बड़े जनों की क्रियासिद्धि पौरुष से होती है; न कि साधन से । राजा संतुष्ट होकर ब्राह्मण पुत्र को अठारह गजराज दिये ।