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भोजप्रवन्धः

'देव [१]त्वदानपाथोधौ दारिद्रयस्य निमज्जतः ।
न कोऽपि हि करालम्बं दत्ते मत्तेभदायक ।। १६६ ।।

 ततस्तुष्टो राजा तस्मै त्रिंशद्गजेन्द्रान्प्रादात् ।

 तत्पश्चात् एक ब्राह्मण का वेटा पुक्का-फाड़ रोता आया। सभी लोग पाश्चर्य में पड़ गये कि यह क्यों पुक्का-फाड़ रो रहा है ? राजा ने अपने मुख बुलाया और पूछा । वह बोला-

 'हे मतवाले हाथियों के दाता महाराज, आपके दान रूपी जलनिधि में डूबते हुए दारिद्रय को कोई हाथ का सहारा भी नहीं दे रहा है।'

 तो प्रसन्न हुए राजा ने उसे तीस गजराज दे डाले।

 ततः प्रविशति पत्नीसहितः कोऽपि विलोचना विद्वान् 'स्वस्ति' इत्यु- क्त्वा प्राह-

'निजानपि गजान्भोज ददानं प्रेक्ष्य पार्वती।
गजेन्द्रवदनं[२]पुत्रं रक्षत्यद्य पुनः पुनः ॥ १६७ ॥

 ततो राजा सप्त गजांस्तस्मै ददौ।

 तदनंतर कोई नेत्र हीन पंडित पत्नी सहित आया और स्वस्ति' कहकर बोला-

 'अपने हाथियों को भी दे डालने के इच्छुक भोज को देखकर पार्वती आज अपने गजराज के मुखवाले पुत्र की रक्षा बार-बार कर रही है ।' तो राजा ने सात हाथी उसे दे दिये ।

 ततो राजा विद्वत्कुटुम्वं तदैव पुरतः स्थितं वीक्ष्य ब्राह्मणं प्राह-

  "क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे।'

 तब राजा ने विद्वान् के कुटुम्ब को पूर्वोक्त रूप में ही सम्मुख खड़ा देख कहा-~-'बड़े जनों की क्रिया सिद्धि पौरुष से होती है, न कि साधन से ।'

 वृद्धद्विजः प्राह-

'घटो जन्मस्थानं मृगपरिजनो भूर्जवसनो
 बने वासः कन्दादिकमशनमेवंविधगुणः ।
अगस्त्यः पाथोधिं यदकृत कराम्भोजकुहरे
 क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे' ।।


६ भोज०

  1. तवदानसमुद्रे ।
  2. (२) गजाननमिति यावत् ।