कभी राजा ने बाहरी उद्यान के मार्ग की और आते किसी विप्र को देखा। उसके हाथ में चमड़े का कमंडलु देख उसे अत्यन्त दरिद्रं समझा किंतु उसके मुख को शोमा युक्त देख घोड़ा उसके आगे खड़ा करके कहा--'ब्राह्मण, चमड़े का पात्र क्यों लिये हो ?' मुख की शोभा और कथन की मृदुता के कारण यह समझ कर कि निश्चय ही यह राजा भोज है, उस ब्राह्मण ने कहा-'महाराज, दाता शिरोमणि भोज के धरती का शासन करते लोहे और तांबे का अभाव हो गया है, इससे चमड़े का पात्र रखे हुए हूँ।' राजा-'भोज के शासन में लोहे और तांबे का अभाव किस कारण से हुआ ? तो ब्राह्मण ने पढ़ा-
'दो.पदार्थ अति दुर्लम हैं श्री भोजराज के शासन में, |
तब संतुष्ट राजा ने प्रत्येक अक्षर पर लाख-लाख मुद्राएं दी।
कदाचिद् द्वारपालः प्राह-'धारेन्द्र, दूरदेशादागतः कश्चिद्विद्वान्- द्वारि तिष्ठति, तत्पत्नी च। तत्पुत्रः सपत्नीकः अतोऽतिपत्रित्रं विद्वत्कुटुम्बं द्वारि तिष्ठति' इति । राजा-'अहो गरीयसी शारदाप्रसादपद्धतिः ।' तस्मिन्नवसरे गजेन्द्रपाल आगत्य राजानं प्रणम्य प्राह-'भोजेन्द्र, सिंहलदेशाधीश्वरेण सपादशतं गजेन्द्राः प्रेषिताः षोडश महामणयश्च ।' ततो बाणः प्राह--
'स्थितिः कविनामित्व कुञ्जराणां स्वमन्दिर वा नृप-मन्दिरे वा । |
तभी आकर द्वार पाल बोला-'हे धारा के स्वामी, दूर देश से आया कोई विद्वान् उसकी पत्नी और पत्नी सहित उसका पुत्र द्वार पर उपस्थित हैं ।' राजा ने विचारा--'अहो, शारदा देवी अत्यन्त प्रसन्न हैं ।' उसी अवसर पर गजराजों के पालक ने आकर प्रणाम करके कहा-'महाराज भोज, सिंहल देश के अधिराज ने सवा सौ हाथी और सोलह महामणियाँ भेजी है।' तो बाण ने कहा---
हाथियों की भांति ही कवियों की स्थिति होती है-अपने घर में रहें अथवा राज मन्दिर में। परंतु हे धरती के पालक, ये . अपने अंगों को सजा कर मच्छरों की भाँति घर-घर डोलते हैं ।