कह कर चारणों की भाषा में पूछा-'हे विद्या के सागर विद्वानो, भोज की सभा में अतिशय महत्त्व पा बृहस्पति के समान होकर आप लोग कहाँ जाने की इच्छा कर रहे हैं ? आप लोग सकुशल हैं न ? राजा भी कुशल पूर्वक है ! हम भी भोज के दर्शन और धन की आकांक्षा से काशी-देश से आ रहे हैं ।'
ततः परिहासं कुर्वन्तः सर्वे निष्क्रान्ताः । ततस्तेषु कश्चित्तगिरमाकर्ण्यं तं च चारणं मन्यमानः कुतूहलेन विपश्चित्प्राह-'अहो चारण शृणु। त्वया पश्चादपि श्रोष्यत एव । अतो मयाद्यैवोच्यते । राजा किलैभ्यो विद्वद्भयः पूरणाय समस्योक्ता। तत्पूरणाशक्ताः कुपितराज्ञो भयाद्देशान्तरे क्वचिच्चिगमिषव एते निश्चक्रमुः।
तब वे सब परिहास करते हुए चले गये, परंतु उनमें से कोई एक विद्वान् उसके वचन सुनकर उसे चारण मानता हुआ कुतूहल पूर्वक बोला—'अरे चारण, सुनो । तुम को बाद में तो सुनना ही होगा, इसलिए मैं आज ही कहे देता हूँ। राजा ने पूर्ति के निमित्त इन विद्वानों से एक समस्या कही । उसकी पूर्ति में असमर्थ ये क्रुद्ध राजा के डर से कहीं दूसरे देश में जाने की इच्छा से निकल पड़े हैं। .
चारण:-'राज्ञा का वा समस्या प्रोक्ता ।
ततः पठति स विपश्चित्-
'तुलणं अणु अणुसरइ ग्लौसो मुहचन्दस्स खु एदाए।' चारण:--'एतत्साध्वेव गूढार्थम् । एतत्पूर्णेन्दुमण्डलं वीक्ष्य राज्ञापाठि। एतस्योत्तरार्धमिदं भवितुमर्हति- अणु इति वरणयदि कहं अणुकिदि तस्स प्पडिपदि चन्दस ॥'
सर्वे श्रुत्वा चमत्कृताः । ततश्चारणः सर्वान्प्रणिपत्य निर्ययौ ।
चारण ने पूछा---'राजा ने कौन सी समस्यां कही ?' तब उस विद्वान् ने पढ़ा- 'कभी न चंदा हो सकता है इस मुखेंदु के तुल्य ।' चारण- इसका गूढ अर्थ ठीक ही है । राजा ने पूर्ण चंद्र-मंडल देख कर इसे पढ़ा। इसका उत्तरार्द्ध यह होना उचित है :---
प्रति पद को प्रतिक्षीण चंद्रमा-नहीं सुमुखि--मुख तुल्य ।' सुनकर सब- चमत्कृत हो गये । फिर चारण सबको प्रणाम करके चला गया।