वररुचि-पदों द्वारा व्यक्त, सहृदयजन के आस्वादन के निमित्त साधारणी
कृत प्रसंग-योजना के कारण ललित चरण रखे जाने से बन गये चिह्नों के
कारण सज्जनों के लिए जिसमें दिशा का निर्देश स्पष्ट है, ऐसे मार्ग के समान
कवियों के इस मार्ग में ( काव्य में ) पंडितों की ही बुद्धि स्फुरित होती है । यह
पंथ कुलकामिनियों के कटाक्षों का पंथ है, जो थोड़े से क्रीडाविलास का
व्यसनी होने पर भी निन्दनीय नहीं माना जाता। यह गणिकाओं का
विषय नहीं है । भाव यह है कि काव्य का रस, रसिक सहृदय पंडितों द्वारा
ही संवेद्य होता है । उसकी एक मर्यादित, सुनिश्चित योजना है, कुलकामिनियों
के मर्यादित कटाक्ष-विलास के समान । वह काव्य जिस तिसके प्रति किये
गये वारवनिताओं के कटाक्ष की भांति नहीं होता।
राजा क्रीडाचन्द्राय विंशतिगजेन्द्रान्ग्रामपञ्चक च ददौ । ततो राजानं कविः स्तौति-
'कङ्कणं नयनद्वन्द्वे तिलक करपल्लवे। |
तुष्टो राजा पुनरक्षरं लक्ष ददौ ।
राजा ने क्रीडाचंद्र को वीस हाथी और पाँच गाँव दिये । तव कविने राजा की प्रशंसा की-
भोज के शत्रुओं की स्त्रियों के आभूषण पहिनने की रीति अनोखी है- दोनों नेत्रों में उन्होंने कंगन पहिने हैं ( आँसू ) और करपल्लवों में तिलक (मृतपतियों के तर्पण के निमित्त तिल ) । भावार्थ यह कि शत्रु-स्त्रियाँ आँखों में आँसू भरे हाथ में तिल लेकर मृतपतियों का तर्पण कर रही है । ये आंसू नेत्रों के कंगन हैं और हाथ के तिल तिलक । संतुष्ट होकर राजाने पुनः प्रत्यक्षर लाख मुद्राएं दी।
८--रामेश्वरकवेरन्यसभाकवीनाञ्च सत्कारः ततः कदाचित्कोऽपि जराजीर्णसर्वाङ्गसन्धिः पण्डितो रामेश्वरनामा सभामभ्यगात् । स चाह-