सामग्री पर जाएँ

पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/५९

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति
५२
भोजप्रवन्धः


देव, आकर्णय-

च्युतामिन्दोर्लेखां रतिकलहभग्नं च वलयं
समं चक्रीकृत्य प्रहसितमुखी शैलतनया।
अवोचद्य पश्येत्यवतु गिरिशः सा च गिरिजा
स च क्रोडाचन्द्रोदशनकिरणापूरिततनुः ।। ११५ ।।

 कवि-'पंडितों को अपना नाम लेना उचित नहीं होता, तथापि बताता हूँ, यदि समझ सको।

 दूध पीते बच्चों की बुद्धि गंभीर वचन की थाह नहीं पा पाती, जलनिधि के तल को देखने के लिए बांस की लाठी नहीं होती। देव, सुनिए-

 रतिकलह में गिरी चंद्रमा की कला और टूटे कंगन को जोड़ गोलाकार चक्र जैसा बनाकर हँसती हुई पर्वतपुत्री ने शिव से कहा-'यह देखो ! (तो देखनेवाले ) वह कैलासशायी शिव और वह गिरि सुता और वह दंतकांति समान किरणों से परिपूरित क्रीडाचन्द्र आपकी रक्षा करे ।'

 कालिदासः--'सखे क्रीडाचन्द्र, चिराष्टोऽसि । कथमीदृशी ते दशा मण्डले विराजत्यपि राजनि बहुधनवति ?'

 कालिदास ( ने कहा )--"मित्र क्रीडाचन्द्र, बहुत समय बाद दीखे हो प्रभूत धनवान् राजाओं के रहने पर भी तुम्हारी यह कैसी दशा है ?' कीडाचन्द्र:--

धनिनोऽप्यदानविभवा गण्यन्ते धुरि महादरिद्राणाम् ।
हन्ति न यतः पिपासामतः समुद्रोऽपि मरुरेव ॥ ११६ ।।

क्रीडाचन्द्र- 'जो अपनी सम्पत्ति का दान नहीं करते, ऐसे धनी भी महा. दरिद्रों में ऊँचे स्थान पर गिने जाते हैं । क्योंकि प्यास नहीं बुझाता इसलिये समुद्र भी मरुस्थल ही है । किं च-

 उपभोग [] कातराणां पुरुषाणामर्थसम्बयपराणाम् ।

 कन्यामणिरिव संदने तिष्ठत्यर्थः परस्यार्थे ॥ ११७ ।।


  1. उपभोगे कातराः भीता । उपभोगमकुर्वाणा इति यावत्