कनकमणिकुण्डलशाली दिव्यांशुकप्रावरणो नृपकुमार इव मृगमदपङ्ककलङ्कितगात्रो नवकुसुमसमभ्यर्चितशिराश्चन्दनाङ्गरागेण विलोभयन्विलास इव मूर्तिमान्कवितेव तनुमाश्रितः शृङ्गाररसस्य स्यन्द इव सस्पन्दो
सहेन्द्र इव महीवलयं प्राप्तो विद्वान् । तं दृष्ट्वा सा विद्वत्परिपद्भयकौतुकयोः
पात्रमासीत् । स च सर्वान्प्रणिपत्य प्राह--'कुत्र भोजनृपः' इति । ते
तमूचुः इदानीमेव सौधान्तरगतः' इति । ततोऽसौ प्रत्येकं तेभ्यस्ताम्बूलं
दत्त्वा गजेन्द्रकुलगतो मृगेन्द्र इवासीत्।।
तदनंतर सभा को राजा से रहित पाकर विद्वान् लोग उसकी निंदा करने लगे-'अरे, राजा का अज्ञान है । इसकी सेवा से क्या लाभ ? वेद-शास्त्रों के विज्ञाता अपने आश्रित कवियों को इसने एक लाख दिया। इतने असंतुष्ट होने से भी क्या ? यह एक ग्रामीण कवि मात्र है। इसमें प्रगल्भता ही क्या है ?' इस प्रकार कोलाहल शब्द होने पर सोने के मणिजटित कुंडल-धारण किये, अत्यंत सुंदर वस्त्र पहिने, राजकुमार की भाँति कस्तूरी का लेप समस्त शरीर पर किये, नवीन पुष्पों से सिर को सुशोभित किये, चंदन के अंगराग से लुब्ध करता हआ मूर्तिमान विलास के समान, जैसे कविता ने ही देह-वारण की हो ऐसा, शृंगार रस के प्रवाह की भाँति, भूतल पर अवतीर्ण साक्षात् महेंद्र के समान कोई विद्वान् आया। उसे देखकर वह विद्वन्मंडली भय और कौतुक की पात्र बन गयी। वह सबको प्रणाम करके वोला--'राजा भोज कहाँ हैं ?' उन्होंने उसे बताया--'अभी प्रासाद में गये हैं ।' तब वह उन सबको एक-एक तांबूल देकर राजराजों के बीच स्थित मृगराज की भाँति स्थित हुआ।
ततः स महापुरुषः शंकर कविप्रदानेन कुपितांस्तान्बुद्ध्वा प्राह- 'भवद्भिः शंकरकवये द्वादशलक्षाणि प्रदत्तानीति न मन्तव्यम् । अभिप्रायस्तु राज्ञो नैव बुद्धः । यतः शंकरपूजने प्रारब्धे शंकरकविस्वेकेनैव लक्षेण पूजितः । किं तु तन्निष्टांस्तन्नाम्ना विभाजितानेकादशरुद्राशंकरानपरान्मूर्तीन्प्रत्यक्षाज्ञात्वा तेषां प्रत्येकमेकैकं लक्षं तस्मै शङ्करकवय एव शङ्करमूर्तये प्रदत्तमिति राज्ञोऽभिप्रायः' इति । सर्वेऽपि चमत्कृ- तास्तेन ।
३ भोज०