कविः--'पठ्यते'. ..
एतासामरविन्दसुन्दरदृशां द्राक्चामरान्दोलना- |
यथा यथा भोजयशो विवर्धते सितां त्रिलोकीमिव कर्तुमुद्यतम् । |
ततो राजा शंकरकवये द्वादशलक्षं ददौ । सर्वे विद्वांसश्च विच्छायवदना वभूवुः । परं कोऽपि राजभयानावदत् । राजा च कार्यवशाद्- गृहं गतः।
राजा द्वारा उसे प्रविष्ट कराने का आदेश होने पर दाहिना हाथ ऊपर उठाये वह ब्राह्मण बोला--राजन्, उन्नति हो।
राजा ने पूछा- हे शंकर कवि, पत्रिका में क्या है ? |
परंतु क्षण भरको इन कमल के समान सुंदर नयनों वाली रमणियों के जल्दी-जल्दी चंवर डुलाने के कारण हिलती भुजलताओं में पड़े कंकणों के झणत्कार का निवारण तो कीजिए।
'हे भोज, तीनों लोकों को सफेद करने को उद्यत आपका यश जैसे जैसे बढ़ता है, वैसे-वैसे अपनी प्रिया की अलकावली के श्वेत हो जाने की आशंका से मेरा हृदय व्यथित होता है।
तब राजा ने शंकर कवि को बारह लाख दिये। और सब विद्वानों के मुख उतर गये, परंतु राजा के डर से सब चुप रहे । राजा कार्यवश वाहर चला गया।
ततो विभूपालां सभां दृष्ट्वा विबुधगणस्तं निनिन्द--'अहो नृपतेरज्ञता। किमस्य सेवया । वेदशास्त्रविचक्षणेभ्यः स्वाश्रयकविभ्यो लक्षमदात् । किमनेन वितुष्टेनापि । असौ च केवलं ग्राम्यः कविः शंकरः। किमस्य प्रागल्भ्यम् । इत्येवं कोलाहलरवे जाते कश्चिदभ्यगात्