राजा भी उस वाक्य से जैसे अमृत-प्रवाह में स्नान करता हुआ, जैसे
परब्रह्म में लीन नेत्रों से हर्ष के आँसू गिराने लगा और ब्राह्मण से बोला-
'ब्राह्मण श्रेष्ठ, सुनो-
निरंतर प्रिय बोलने वाले पुरुप संसार में सुलभ है; जो प्रिय न हो और हितकारी हो, ऐसे वचन कहने वाला और सुनने वाला दुर्लभ है। .
जो समझदार हैं, वे हित चाहने वाले नहीं हैं, जो हित चाहने वाले हैं, वे समझदार नहीं । जो मित्र भी हो, विद्वान् भी हो,-मनुष्यों में ऐसा व्यक्ति मिलना वैसे ही दुर्लभ है, जैसे स्वादिष्ठ और लाभकारी औषध मिलना।
ऐसा कह विप्र को एक लाख देकर पूछा कि-'तुम्हारा नाम क्या है ?' |
विप्रः स्वनाम भूमौ लिखति 'गोविन्दः' इति। राजा वाचयित्वा 'विप्र, प्रत्यहं राजभवनमागन्तव्यम् । न ते कश्चिनिषेधः। विद्वांसः कवयश्च कौतुकात्सभामानेतव्याः। कोऽपि विद्वान्न खलु दुःखभागस्तु, एनमधिकारं पालय' इत्याह ।
ब्राह्मण ने अपना नाम धरती पर लिख दिया-'गोविंद' । वाँचकर राजा बोला-'ब्राह्मण, तुम्हें प्रतिदिन राजभवन में आना है । तुम्हारे लिए कोई रोक नहीं । और विद्वानों और कवियों को प्रसन्नतापूर्वक सभा में लाते रहना। कोई विद्वान् दुःखी न रहे । इस अधिकार का पालन करो।'
एवं गच्छत्सु कतिपयदिवसेषु राजा विद्वत्प्रियो दानवित्तेश्वर इति प्रथामगात् । ततो राजानं दिदृक्षवः कवयो नानादिग्भ्यः समागताः। एवं वित्तादिव्ययं कुर्वाणं राजानं प्रति कदाचिन्मुख्यामात्येनेत्थमभ्यधायि-'देव, राजानः कोशवला एव विजयितः । नान्ये ।
स जयी वरमातङ्गा यस्य तस्यास्ति मेदिनी। |
देव लोकं पश्य--
प्रायो धनवतामेव धने तृष्णा गरीयसी। |
इस प्रकार कुछ दिवस व्यतीत होने पर राजा 'विद्वानों का प्यारा' |
महान् दानशील' प्रसिद्ध हो गया। तव अनेक दिशाओं से राजा के दर्शनार्थी |