दधीचि, शिवि, विक्रम-आदि धरती के स्वामो अपने दान से उत्पन्न दिव्य
नवीन गुणों से युक्त हो पृथ्वी मंडल पर परलोक को अलंकृत बनाते हुए जिस
प्रकार रहते थे, वैसे और राजा क्या हैं ?
देहे पातिनि का रक्षा यशो रक्ष्यमपातवत् । |
नष्ट होने वाले देह की रक्षा क्या करना, अविनश्वर यश की रक्षा उचित
है । देह नष्ट हो जाने पर भी मनुष्य यशः शरीर से जीवित रहता है।
चाहे पंडित हो, चाहे मूर्ख; चाहे बली हो, चाहे दुर्बल; चाहे धनी हो, चाहे दरिद्र-मृत्यु सबको समान है।
व्यतीत होती तेरी आयु पल भर को भी नहीं रुकती, इससे उचित है कि इन अनित्य शरीरों के रहते केवल यश का अर्जन करे ।
मनुष्यों का ज्ञान, पराक्रम, कला, कुल की लज्जा, त्याग और भोग से हीन जो निष्फल जीवन है, पुण्यकर्मा जन उसकी भी क्या जीवनों के मध्य । गणना करते हैं ? |
राजापि तेन वाक्येन [१] पीयूपपूरस्नात इव, परब्रह्मणि लीन इव, लोचनाभ्यां हर्षाश्रूणि मुमोच । प्राह च द्विजम्-'विप्रवर, शृणु-
सुलभाः पुरुषा लोके सततं प्रियवादिनः।। |
मनीपिणः सन्ति न ते हितैषिणो हितैषिणः सन्ति न ते मनीषिणः । |
इति विप्राय लक्षं दत्त्वा 'किं ते नाम' इत्याह । |
(१) सुधापूरस्नात इव ।
- ↑ (१)