पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/३२

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भोजप्रवन्धः


 दधीचि, शिवि, विक्रम-आदि धरती के स्वामो अपने दान से उत्पन्न दिव्य नवीन गुणों से युक्त हो पृथ्वी मंडल पर परलोक को अलंकृत बनाते हुए जिस प्रकार रहते थे, वैसे और राजा क्या हैं ?

देहे पातिनि का रक्षा यशो रक्ष्यमपातवत् ।
नरः पतितकायोऽपि यशःकायेन जीवति ।। ५३ ॥
पण्डिते चैव मूर्खे च बलवत्यपि दुर्बले। .
ईश्वरे च दरिद्रे च मृत्योः सर्वत्र तुल्यता ॥ ५४ ।।
निमेषमात्रमपि ते वयो गच्छन्न तिष्ठति ।
तस्मादेहेष्वनित्येषु कीर्तिमेकामुपार्जयेत् ।। ५५ ।।
जीवितं तदपि जीवितमध्ये गण्यते सुकृतिभिः किमु पुंसाम् ।
ज्ञानविक्रमकलाकुललज्जा-त्यागभोगरहितं विफलं यत् ॥५६॥

 नष्ट होने वाले देह की रक्षा क्या करना, अविनश्वर यश की रक्षा उचित

है । देह नष्ट हो जाने पर भी मनुष्य यशः शरीर से जीवित रहता है।

 चाहे पंडित हो, चाहे मूर्ख; चाहे बली हो, चाहे दुर्बल; चाहे धनी हो, चाहे दरिद्र-मृत्यु सबको समान है।

 व्यतीत होती तेरी आयु पल भर को भी नहीं रुकती, इससे उचित है कि इन अनित्य शरीरों के रहते केवल यश का अर्जन करे ।

मनुष्यों का ज्ञान, पराक्रम, कला, कुल की लज्जा, त्याग और भोग से

हीन जो निष्फल जीवन है, पुण्यकर्मा जन उसकी भी क्या जीवनों के मध्य । गणना करते हैं ?

 राजापि तेन वाक्येन [१] पीयूपपूरस्नात इव, परब्रह्मणि लीन इव, लोचनाभ्यां हर्षाश्रूणि मुमोच । प्राह च द्विजम्-'विप्रवर, शृणु-

सुलभाः पुरुषा लोके सततं प्रियवादिनः।।
अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ।। ५७ ।।

मनीपिणः सन्ति न ते हितैषिणो हितैषिणः सन्ति न ते मनीषिणः ।
सुह्रच्च विद्वानपि दुर्लभो नृणां यथौपषधं स्वादु हितं च दुर्लभम् ॥ ५८ ॥


इति विप्राय लक्षं दत्त्वा 'किं ते नाम' इत्याह ।

(१) सुधापूरस्नात इव ।

  1. (१)