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भोजप्रवन्धः


 रक्षितः' इति । चुद्धिसागरश्च कर्णे तस्य किमप्यकथयत् । तच्छु त्या वत्सराजश्व निष्क्रान्तः।

 तत्पश्चात् रात में ही राजा का अग्नि प्रवेश निश्चित हो जाने पर सव सरदार और नगरवासी एकत्र हो गये। 'पुत्र की हत्या करके पाप से डरा राजा अग्नि में प्रवेश कर रहा है,'---यह अफवाह सवं जगह फैल गयी। तव बुद्धिसागर ने द्वारपाल को बुलाकर कहा कि 'कोई राजभवन में न घुसपाये, और यह कह कर राजा को रनिवास में प्रविष्ट कराके स्वयम् अकेला सभागृह में आ वैठा । तदनंतर राजा की मृत्यु से संबद्ध समाचार सुनकर वत्सराज. सभागृह में पहुँच कर वुद्धिसागर को प्रणाम करके धीरे से वोला--'तात, मैंने भोजराज को बचा लिया है ।' बुद्धिसागर ने उसके कान में कुछ कहा । वह सुनकर वत्सराज चला गया।

 ततो मुहूर्तेन कोऽपि करकलितदन्तीन्द्रदन्तदण्डो विरचितप्रत्यग्र- जटाकलापः कर्पूरकरस्बितभसितोद्वर्तितसकलतनुर्मूर्तिमान्मन्मथ इव स्फटिककुण्डलमण्डितकर्णयुगलः कौशेयकौपीनो मूर्तिमांश्चन्द्रचूड इव सभा कापालिकः समागतः । तं वीक्ष्य बुद्धिसागरः प्राह-योगीन्द्र, कुत आगम्यते । कुत्र ते निवेशश्च । कापालिके स्वाये यञ्चमत्कारकारी कला- विशेष औषधविशेषोऽप्यस्ति ।'

 तदनतर दो घड़ी वाद गजराज के दांत के दंश से हाथ को सुशोभित किये, सामने जटाओं का जूड़ा बाँधे, संपूर्ण देह पर कपूर मिली भस्म रमाये साक्षात् कामदेव के समान प्रतीत होता, स्फटिक के कुंडलों से कान अलंकृत किये, रेशमी कौपीन वाँचे, चूडा में चंद्रधारण करनेवाले साक्षात् महादेव के समान एक कापालिक योगी सभा में आया। उसे देखकर बुद्धिसागर, ने. 'पूछा--'योगिराज, कहाँ से आना हुआ है और आपका निवासस्थान कहाँ है ? कपाली योगी आपके पास कोई चमत्कारी विशेष कला अथवा कोई विशेप औपध भी है ?'

 योगी प्राह-

देशे देशे भवनं भवने भवने तथैव भिक्षान्नम् ।
सरसि च नद्यां सलिलं शिव शिव तत्त्वार्थयोगिनां पुंसाम्॥४२॥ ;