पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१८३

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१८० भोजप्रबन्धः बीत जाने पर समुद्र में से ) उन सब .प्रसिद्ध शिला चिंतामणि, गाय कामधेनु और पेड़ कल्पवृक्ष के निकल जाने पर ऐसा विलक्षण दान कैसे संभव होता? ततो लोकोत्तरं श्लोकं श्रुत्वा राजा पुनरपि तस्मै लक्षत्रयं ददौ। ततो लिखति स्म भाण्डारिको धर्मपत्रे-- 'प्रीतः श्रीभोजभूपः सदसि विरहिणो गूढनर्मोक्तिपद्यं श्रुत्वा हेम्नां च लक्ष दश वरतुरगान्पञ्च नागानयच्छत् । पश्चात्तत्रैव सोऽयं वितरणगुणसद्वर्णनात्प्रोतचेता लक्षं लक्षं च लक्षं पुनरपि च ददौ मल्लिनाथाय तस्मै' ॥३२॥ तो ऐसा लोकोत्तर (दिव्य ) श्लोक सुनकर राजा ने फिर उसे तीन लाख मुद्राएँ दीं। तब भांडारी ने धर्मपत्र पर लिखा- - सभा में विरही के प्रति गूढ संकेत कथन से पूर्ण . पद्य सुनकर प्रसन्न हुए श्रीभोज ने. लाख-भर सोना, दस.अच्छे घोड़े और पांच हाथी दिये । तत्पश्चात् वहीं दान करने के गुण का सुंदर वर्णन करने पर उस मल्लिनाथ को प्रसन्न चित्त राजा ने..फिर लाख, लाख और लाख ( अर्थात् तीन लाख ) मुद्राएँ दीं। T n (३६) राज्ञश्चरमगीति:- ::T तत कदाचिद्भोजराजः कालिदासं प्रति प्राह--'सुकवे, त्वमस्माकंचर- मग्रन्थं पठ।' ततः ऋद्धो राजानं विनिन्द्य कालिदास क्षणेन तं देशं त्यक्त्वा विलासवत्या सहैकशिलानगरं प्रांप । कभी भोजराज ने कालिदास से कहा-'हे सुकवि, तुम हमारे मरणकाल का विवरण देने वाली ( मरणगीत ) रचना पढ़ो। तो राजा की निंदा करके क्रुद्ध हो कालिदास विलासवती के साथ एकशिला नगर को चला गया । ततः कालिदासवियोगेन-शोकाकुलस्तं कालिदास मृगयितुं राजा कापालिकवेषं धृत्वा क्रमेणैकशिलानगरं प्राप! ततः कालिदासो योगिनं दृष्ट्वा तं सामपूर्व पप्रच्छ--'योगिन् , कुत्र तेऽस्ति स्थितिः' इति ।