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भोजप्रवन्धः


॥ च तन्मुखश्रिया भोजं मत्वा तत्पिपासां च ज्ञात्वा तन्मुखावलोकनशाच्छन्दोरूपेणाह-

हिमकुन्दशशिप्रभशङ्खनिभं परिपक्वकपित्थसुगन्धरसम् ।
युवतीकरपल्लवनिर्मथितं पिब हे नृपराज रुजापहरम्' ॥३२५।। इति ।

 उसके मुख की कांति से उसने उसे भोज मानकर और उसकी प्यास को जानकर उसके मुख को देखने के लिए छंद रूप में कहा-

बर्फ कुंद, चंदा और शंख के समान श्वेत,
पके हुए कैथ का सुगंधित जैसे रस है,
युवती के कोमल कर-किसलय से मथा हुआ
पान करें राज-राज, सर्वरोगहर है।

 राजा तच्च तक्रं पीत्वा तुष्टस्तां प्राह--'सुभ्रू :; किं तवाभीष्टम्' इति । च किचिदाविष्कृतयौवना मदपरवशमोहाकुलनयना प्राह-'देव, कन्यामेवावेहि ।'

 वह मीठा पीकर संतुष्ट हो राजा ने उससे कहा--'हे सुंदर भ्रकुटी , तुम्हारी क्या कामना है ?' जिसका यौवन कुछ-कुछ प्रकट हो धा, ऐसी वह मद के परवश हो चंचल नेत्रों से मोह प्रकट करती हुई -'महाराज, मुझे कुमारी कन्या ही समझें।

सा पुनराह-

'इन्, कैरविणीव कोकपटलीवाम्भोजिनीवल्लभं .
मेघं चातकमण्डलीच मधुपश्रेणीव पुष्पव्रजम् ।
माकन्दं पिकसुन्दरीव रमणीवात्मेश्वरं प्रोषित
चेतोवृत्तिरियं सदा नृपवर त्वां द्रष्दुमुत्कण्ठते' ॥३१६।।


यथा कुमुदिनी शशि को चाहे, सूरज.को मंडल चकवों का,
झुंड पपीहों का बादल को, फूलों को समूह भ्रमरों का,
आमों को कोयलिया, विछड़ा अपना पति रमणी को वांछित,
मनोवृत्ति यह सदा नृपतिवर, तुम्हें देखने को उत्कंठित ।

 राजासत्कृतः माह-सुकुमारि, त्वां लीलादेव्या अनुमत्यास्वीकुर्मः।' इति धारानगरं नीत्वा तां तथैव स्वीकृतवान् ।