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पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१३३

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भोजप्रवन्धः

 सुंदर कंगन खनकाते मेरे हाथ नहीं हैं और न मेरे कानों में कुंडल हैं; न लहराते क्षीर समुद्र के दुग्ध के समान मुग्ध करने वाली शुभ्र कांति वाले वस्त्र हैं और न आभूपण; हाथी दांत के डंडों से निर्मित न तो पालकी ही है और न खूब ऊँचा घोड़ा;-हे राजा, राजसभा में भली भांति व्यक्त करने की। कला का चातुर्य ही मेरे पास है।

तो उसे राजाने लाख मुद्राएं दीं अन्यदा राजा रात्रौ चन्द्रमण्डलं दृष्ट्वा तदन्तस्थकलङ्कवर्णयति स्म---

अङ्कं केऽपि शशङ्किरे जलनिधेः पङ्क परे मेनिरे सारङ्गं कतिचिच्च सञ्जगदिरे भूच्छायमैच्छन्परे।'

इति राजा पूर्वार्धं लिखित्वा कालिदासहस्ते ददौ ।

दूसरी वार राजा रात में चंद्र मंडल देखकर उसके भीतर स्थित कालिमा चिह्न का वर्णन करने लगा--- कुछ कलंक की शंका करते, कुछ कहते समुद्र की पंक, कुछ कहते यह हिरन और कुछ धरती की छाया यह अंक ।

राजा ने इस प्रकार श्लोक का पूर्वार्घ लिखकर कालिदास के हाथ दे दिया। ततः स तस्मिन्नेव क्षण उत्तरार्ध लिखति कविः-

'इन्दौ यद्दलितेन्द्रनीलशकलश्यामं दरीदृश्यते । तत्सान्द्रं निशि पीतसन्धतमसं कुक्षिस्थमाचक्ष्महे ॥ २५८ ।। राजा प्रत्यक्षरलक्षमुत्तरार्धस्य दत्तवान् ।

तो उस कवि ने उसी क्षण उत्तरार्घ लिख दिया--

इंद्र नीलमणि-खंड दीखता जो चंदा में काला-सा, सब पिया रात में घना अंधेरा, पड़ा पेट में पाला-सा । राजा ने उत्तरार्ध के लिए प्रत्येक अक्षर पर लाख मुदाएं दीं।

ततो राजा कालिदास-कवितापद्धतिं वीक्ष्य चमत्कृतः पुनराह-

'सखे, अकलङ्कं चन्द्रमसं व्यावर्णय' इति ।

 तो राजा ने कालिदास की काव्य-रचना-प्रणाली को देखकर चमत्कृत हो फिर कहा-'मित्र, निष्कलंक चंद्रमा का वर्णन करो।'