पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१३

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भोजप्रवन्धः

वि [१]च्छायवदनोऽभूत् ।।

 तदनंतर उस ( भोज ) के रूप और सौंदर्य पर मुग्ध, राजकुमारों के मध्य महान् सौभाग्यशाली, धरती पर उतरे महेंद्र के समान, साकार कामदेव के सदृश, मूर्तिमान् सौभाग्य के तुल्य भोज को देख कर ज्योतिषी ने राजा से कहा--'राजन् भोज के भाग्य का वर्णन तो ब्रह्मा भी करने में पर्याप्त नहीं है, मैं पेटपालू ब्राह्मण किस गिनती में हूँ? तो भी अपनी बुद्धि के अनुसार कुछ कहता हूँ। आप भोज को यहाँ से विद्यालय भेज दीजिए।' तत्पश्चात् राजा की आज्ञा से भोज के विद्यालय चले जाने पर ब्राह्मण ने कहा-'पचपन वर्ष, सात मास और तीन दिन राजा भोज बंगाल सहित दक्षिणा पथ का राज्य भोगेंगे।' तब यह सुन कर चतुरतापूर्वक विरूपता से हँसता हुआ सुमुख भी राजा मलिनमुख हो गया।

 ततो राजा ब्राह्मणं प्रेषयित्वा निशीथे शयनमासाद्यैकाकी सन् व्यचिन्तयत्--'यदि राज्यलक्ष्मीर्भोजकुमारं गमिष्यति, तदाहं जीव- स्नपि मृतः।

 इसके उपरांत ब्राह्मण को भेजकर राजा रात में शैय्या पर वैठकर अकेला विचार करने लगा-"यदि राजलक्ष्मी राजकुमार भोज को मिल जायेगी तो ___ मैं तो जीते जी मरा।

तानीन्द्रियाण्यविकलानि तदेव नाम
सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव ।
अर्थोष्मणा विरहितः पुरुषः क्षणेन
सोऽप्यन्य एव भवतीति विचित्रमेतत् ॥७॥

 वे ही अविकल इंद्रियाँ रहती हैं, वही नाम रहता है; अकुंठित बुद्धि भी वही रहती है और वचन भी वही। किंतु कैसी अनोखी बात है कि केवल धन की ऊष्मा ( गर्मी ) से वियुक्त वही मनुप्य क्षण भर में दूसरा ही हो जाता है।


  1. विगता छाया विच्छायम्, “कुगतिप्रादयः' इत्यनेन समासः । "विभापा सेनासुराच्छाया०" इत्यनेन नपुंसकत्वम् । तादृक् वदनं यस्य स इति यावत् ।