इति । राजा प्राह--'प्रवेशय' इति । ततः प्रविष्टः सोऽपि-सभामगात् । ततः सभ्याः सर्वे तदागमनेन तुष्या अभवन् । राजा च भवभूतिं प्रेक्ष्य प्रणमति स्म । स च 'स्वस्ति' इत्युक्त्वा तदाज्ञयोपविष्टः ।
एक वार श्रीभोज के सिंहासन को सुशोभित करने पर द्वारपाल ने जाकर कहा---'देव, वाराणसी देश से आया एक भवभूति नामक कवि द्वार पर उपस्थित है।' राजा ने कहा-'प्रविष्ट कराओ।' सो प्रविष्ट होने पर वह भी सभा में पहुंचा । तब सभी सभासद् उसके आने से संतुष्ट हुए । राजा ने भवभूति को देख कर प्रणाम किया। वह 'स्वस्ति' कहकर उसकी आज्ञा से बैठ गया।
भवभूतिः प्राह-'देव,
नानीयन्ते मधुनि मधुपाः पारिजातप्रसूनै-
र्नाभ्यर्थ्यन्ते तुहिनरूचिनश्चन्द्रिकायां चकोराः ।
अस्मद्वाङ्माधुरिमधुरमापधपूर्वावताराः
सोल्लासाः स्युः स्वंयमिह बुधाः किं मुधाभ्यर्थेनाभिः ॥२४५॥
भवभूति ने कहा-~-महाराज,
भौरे मधु पर पारिजात ( कल्प वृक्ष ) के फूलों द्वारा नहीं लाये जाते; शीतल कांति चंद्रमाकी चांदनी के निमित्त चकोरों की अभ्यर्थना नहीं की जाती ( ये स्वयं ही आकृष्ट होते हैं ! ) इसी प्रकार मेरी वाणी की माधुरी के मिठास को प्रात कर पहिले से यहां पधारे विद्वज्जन स्वयं ही. उल्लसित हो जायेंगे-व्यर्थ अभ्यर्थना करने से क्या लाम?
नास्माकं शिबिका न कापि कटकाद्यालङक्रियासत्क्रिया
नोत्तुङ्गस्तुर गो न कश्चिदनुगो नैवाम्बरं सुन्दरम् ।
किन्तु क्ष्मातलवत्यंशेषविदुषी साहित्यविद्याजुषां
चेतस्तोषकरी शिरोनतिकरी विद्या नवद्यास्ति नः ॥२४६॥
हमारे पास न तो पालकी है, न सत्कार के लिए- सुसज्जित मुलायम बिछीना; न ऊँचा घोड़ा है, न कोई अनुचर और न सुन्दरवस्त्र; कितु धरती पर विद्यमान समस्त साहित्यविद्या के ज्ञाता विद्वानों के चित्त को सन्तुष्ट करने वाली और उनके शिर को विनत करने वाली श्रेष्ठ विद्या है।