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भोजप्रबन्धः

 देव, मन्त्राराधनेनाप्रतिहता शक्ति स्यात् । देव, एवं कुतूहलं यस्य । मया यस्य शिरसि करो निधोयते स सरस्वतीप्रसादेनास्खलित विद्याग्रसारः स्यात् ।' राजा प्राह--'सुमते, महती देवताशक्तिः ।'

 विप्र वोला--'राजन्, सरस्वती के चरणों की आराधना से विद्या की प्राप्ति होती है, यह संसार-प्रसिद्ध है, परन्तु धन की प्राप्ति भाग्य के अधीन है।

 गुण गुण ही होते हैं, गुण संपत्ति के कारण नहीं होते, जो धन-संचय कराते हैं, ने भाग्य भिन्न हो होते हैं।

 महाराज, विद्या गुण ही लोगों की प्रतिष्ठा के निमित्त होते हैं। कल संपदा नहीं । महाराज, गुण समूह ( मनुष्य के ) अपने अधीन होता है, तो निर्गुण रह जाना निंदा योग्य हैं, परन्तु धन तो देवाधीन है, उसमें पुरुषो का क्या दोष?

 महाराज, मंत्राराधन से अशेष शक्ति प्राप्त होती है । देव, उसका यह चमत्कार है कि मैं जिसके सिर पर हाथ रख ,, सरस्वती के प्रसाद से उसके विद्या का प्रसार निर्वाध हो जायेगा।' राजा ने कहा--'हे बुद्धिशाली, देवत की शक्ति बड़ी होती है ।

 ततो राजा कामपि दासीमाकार्य विप्रं प्राह-'द्विजवर, अस्य वेश्यायाः शिरसि करं निधेहि ।' विप्रस्तस्याः शिरसि कर निधाय त प्राह-'देवि, यद्राजाज्ञापयति तद्वद । ततो दासी प्राह 'देव, अहमद समस्तवाङ्मयजातं हस्तामलकवत्पश्यामि। देव, आदिश किं वर्णयामि

 तत्पश्चात् किसी दासी को बुलाकर ब्राह्मण से कहा-'ब्राह्मण-श्रेष्ठ, इस. वेश्या के सिर पर हाथ धरो।' ब्राह्मण ने उसके सिर पर हाथ धर कर कहा-'देवि, राजा जिसकी आज्ञा दें, उसका वर्णन करो।' तो दास बोली-'महाराज, आज मैं संपूर्ण वाङ्मय को हथेली पर रखे आँवले के तुल्य देख रही हूँ | आज्ञा दें महाराज, किसका वर्णन करूं?'

 ततो राजा पुरः खड्गं वीक्ष्य प्राह--'खड्गं मे व्यावर्णय इति दासी प्राह-

'धाराधरस्त्वदसिरेष नरेन्द्र चित्रं
वर्षन्ति वैरिवनिताजनलोचनानि