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भोजप्रवन्धः

 ततो राजा तस्मै हस्तवलयं ददौ ।

 फिर कभी आखेट करने से थका राजा कहीं आम्र वृक्ष के नीचे बैठा था। वहाँ मल्लिनाथ नामक कवि आकर बोला-

  जंगल में शत-शत शाखाओं में फैले न जाने कितने वृक्ष हैं, परन्तु.सुगंध भार से आकृष्ट भ्रमरों के समूह द्वारा जिसके पत्ते छलनी कर दिये गये हैं,.. ऐसे वृक्ष विरल हैं।

 राजा ने उसे हाथ का कंगन दे दिया।

 तत्रैवासीने राज्ञि कोऽपि विद्वानागत्य स्वस्ति' इत्युक्त्वा प्राह- 'राजन् , काशीदेशमारभ्य तीर्थयात्रया परिभ्राम्यते दक्षिणदेशवासिना मया : राजाभवादृशानां तीर्थवासिनोदर्शनात्कृतार्थोऽस्मि ।' स आह--'वयं मान्त्रिकाश्च ।' राजा--'विप्रेषु सर्वं सम्भाव्यते।' राजा पुनः प्राह-'विप्र, मन्त्रविद्यया यथा परलोके फल प्राप्तिः' तथा किमिहलोकेऽप्यस्ति ।

 राजा वहीं बैठे थे कि कोई विद्वान् आ गया और 'स्वस्ति' कह कर बोला- 'राजन् मैं दक्षिण देश का निवासी हूँ, काशी देश से तीर्थयात्रा आरम्भ करके परिभ्रमण कर रहा हूँ।' राजा ने कहा-'आप जैसे तीर्थ-वासियों के दर्शन से कृतार्थ हूँ।' वह बोला--'हम मंत्रविद्या-ज्ञानी भी हैं।' राजा~- "ब्राह्मणों में सबकी संभावना है।' और फिर राजा ने कहा--'विप्र, मंत्रविद्या से जैसे परलोक में फल मिलता है, वैसे क्या इस लोक में भी मिलता है ?'

 विप्रः--'राजन्, सरस्वतीचरणाराधनाद्विद्यावाप्तिर्विश्वविदिता। परं धनाचाप्तिर्भाग्याधीना।

गुणाः खलु गुणा एव न गुणा भूतिहेतवः ।
धनसञ्चयकतृणि भाग्यानि पृथगेव हि ॥ २२३ ।।

 देव, विद्यागुणा एव लोकानां प्रतिष्टाय भवन्ति । न तु केवलं सम्पदः । देव,

आत्मायत्ते गुणग्रामे नैगुण्यं वचनीयता ।
देवायत्तेषु वित्तेषु पुंसां का नाम वाच्यता ।। २२४ ॥