तदनंतर कुछ दिनों पश्चात् राजसमा में ज्योति शास्त्र में पारंगत, समस्त विद्याओं के कौशल से संपन्न एक ब्राह्मण आया और राजा के प्रति कल्याण-वचन कहके बैठ गया तथा राजा से वोला-'देव, यह संसार मुझे सर्वज्ञ कहता है, सो ( आप भी इच्छानुसार ) कुछ पूछिए :-
जो विद्या कंठस्थ हो, बुद्धिमानों को सदा उसे प्रकाशित करना उचित होता है; जो विद्या गुरु अथवा पुस्तक में ही स्थित है, उससे मूर्ख को ही ठगा जा सकता है । ( अथवा पुस्तकस्य या गुरुस्थित विद्या से विद्वत्ता का अभिमानी बना मनुष्य मूर्ख होता है और धोखा खाता है । )
ततो राजापि विप्रस्याहम्भावमुद्रया चमत्कृतां तद्वार्ता श्रुत्वा 'अस्माकं जन्मारभ्यतत्क्षणपर्यन्तं यद्यन्मयाचरितं यद्यत्कृतं तत्तत्सर्वं वदसि यदि, भवान्सर्वज्ञ एव' इत्युवाच। ततो ब्राह्मणोऽपि राज्ञा यद्यत्कृतं तत्तत्सर्वमुवाच । गूढव्यापारमपि। ततो राजापि सर्वाण्यप्यभिज्ञानानि ज्ञात्वा तुतोष । पुनश्च पञ्चषट्पदानि गत्वा पादयोः पतित्वेन्द्रनीलपुष्परागमरकतवैडूर्यखचितसिंहासन उपवेश्य राजा प्राह-
मातेत्र रक्षति पितेत्र हिते नियुक्ते |
ततो विप्रवराय दशाश्वाना [१] जानेयान् ददौ ।
तत्पश्चात् ब्राह्यण की अहंकार युक्त मुद्रा से चमत्कारमयी उस वाणी को सुनकर राजा ने भी कहा-"जन्म से लेकर इस क्षण तक जो-जो आचरण और जो-जो कार्य मेरे द्वारा हुए हैं, वे सब यदि आप बता देंगे तो मैं भी आपको सर्वज्ञ समझूगा ।" तब राजा ने जो-जो किया था, वह सब -यहाँ तक कि गुप्त रूप से किया कार्य भी ब्राह्मण ने बता दिया। राजा भी समस्त श्रेय बातों को जान कर संतुष्ट हुआ और फिर पाँच-छः डग. आगे
बढ़ ब्राह्मण के चरणों में प्रणिपात करके नीलम, पुखराज, पन्ना और वैदूर्य
- ↑ ये कुलीनाः प्रशस्तजातिभवा अश्वास्ते आजानेयाः। आजेन क्षपेणानेयाः प्रापणीया इति विग्रहः। ......…