लोभः प्रतिष्ठा पापस्य प्रसूतिर्लोभ एव च ।
द्वेषक्रोधादिजनको लोभः पापस्य कारणम् ॥ १ ॥
लोभ पाप का मूल है और लोभ ही पाप का जनक है । द्वेष, क्रोध आदि को उत्पन्न करनेवाला लोभ पाप का कारण होता है ॥१॥
लोभात् क्रोधः (१) प्रभवति क्रोधाद् द्रोहः प्रवर्तते ।
द्रोहेण नरकं याति शास्त्रज्ञोऽपि विचक्षणः ॥२॥
लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से द्रोह का प्रवर्तन होता है । शास्त्रों का ज्ञाता विद्वान् भी द्रोह के कारण नरकगामी बनता है ।। २॥
मातरं पितरं पुत्रं भ्रातरं वा सुहृत्तमम् ।
लोभाविष्टो नरो हन्ति स्वामिनं वा सहोदरम् ॥३॥
लोभ से आविष्ट मनुष्य माता-पिता, पुत्र, भाई, घनिष्ठ मित्र, स्वामी और सगे भाई की भी हत्या कर डालता है ।। ३ ।।
इति विचार्य राज्यं मुञ्जाय दत्त्वा तदुत्सङ्गे भोजमात्मजं मुमोच । ततः क्रमाद्राजनि दिवं गते सम्प्राप्तराज्यसम्पत्तिर्मुखो मुख्यामात्यं बुद्धिसागरनामानं व्यापारमुद्रया दूरीकृत्य तत्पदेऽन्य नियोजयामास । ततो गुरुभ्यः क्षितिपालपुत्रं वाचयति ।
ऐसा विचार करके उसने राज्य मुंज को दे दिया और भोज को उसकी छत्रच्छाया में छोड़ दिया । कुछ दिनों वाद (सिंधुल) राजा के दिवंगत होने पर राज्य-संपदा प्राप्त करके मुज ने बुद्धिसागर नामक मुख्य मंत्री को मंत्रिपद से हटा दिया और उसके स्थान पर अन्य की नियुक्त कर दी। राजकुमार ( भोज ) को गुरुजनों से शिक्षा दिलाने लगा।
ततः क्रमेण सभायां ज्योतिः शास्त्रपारङ्गतः सकलविद्याचातुर्यवान् ब्राह्मणः समागम्य राज्ञे 'स्वस्ति' इत्युक्त्वोपविष्टः । स चाह--'देव, लोकोऽयं मां सर्वज्ञ तत्किमपि पृच्छ ।
कण्ठस्था या भवेद्विद्या सा प्रकाश्या सदा बुधैः ।
या गुरौ पुस्तके विद्या तया मूढः प्रतार्यते ॥४॥
इति राजानं प्राह ।
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(१) वर्धत इति भावः ।