१५०६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते – चल=भूभा–ठ्यासार्धम् । बिम्बस्पर्श बिन्दुः=स्प, भूस्प= भूव्यासार्धम् । तदा भूस्पयो, चलयो त्रिभुजयोः साजात्यादनुपातः= चल भूस्प४चयो = भूब्याईx(भूछायादैर्यु-चन्द्रकर्णी) –भूभाव्यासार्धम् । द्विगुणीकरणेन भूछायादैर्भ भूव्या (भूछायादैर्य-चन्द्रकर्णी) = भूभाव्यासः। परमयं भूभाव्यासश्चन्द्रकक्षायां नहि भवति । किन्तु चन्द्रकक्षात उपरि भवतीति भासाधनक्षेत्रदर्शनेन स्फुटम् । ततः ‘सूर्येन्दुभूभातनुयोजनानी' त्यादिना भाव्यासxfत्र =साचायत भूभा भूछायाद्घ्यं चन्द्रक मानकलाःएतेनाचार्योक्तमुपपन्नमिति । भूभामानकलासाTधने या स्थूलता सा पूर्वमेव तत्साधनोपपत्तौ प्रर्दशितास्ति । सा तत्रव द्रष्टव्येति । अब भूभाईंध्यं और भूभामान को कहते हैं । हि- भा.- रबिकणं को भूव्यास से गुणाकर भूव्यासोन रविव्यास से ( भाग देने से भूकेन्द्र से भूछाया का दीर्घत्व (लम्बाई) होता है । उस दीर्घत्व में से चन्द्रकर्ण को घटाकर जो शेष रहता है उसको भूव्यास से गुणाकर दीर्घत्व से भाग देने से चन्द्रकक्षा में भूभाव्यास होता है । उसको त्रिज्या से गुणाकर चन्द्रकर्ण से भाग देने । से भूभामान कला होती है । इति ॥८-६॥ उपपत्ति । रविबिम्व और भूबिम्ब की क्रमस्पर्श रेखाएँ बघत रविकर्ण के साथ चन्द्रकक्षा से ऊपर एक ही बिन्दु में मिलती है, वह बिन्दु=यो, है । भूकेन्द्र से स्पर्श रेखा की समाना तर रेखा रवि व्यासार्ध में जहां लगती है वहां से रविकेन्द्र तक रेखा=रविव्याई-भूव्याने अब दो त्रिभुज बनते हैं जैसे रविकर्ण कर्ण एकभुजः । भूव्यासाधन रविव्यासाधे भुज द्वितीयभुज, केन्द्र से समानान्तर रेखा और रविव्यासार्थ के योग बिन्दु पर्यन्त कोटि तृतीय भुज, इन कर्ण-भुज कोटि से उत्पन्न एक त्रिभुज, तथा भ,केन्द्र से बिन्दु पर्यन्त भछायादैध्यं करौ एकभुज, भव्यासाचं भुज द्वितीयभुज भबिम्ब स्पर्श बिन्दु से यो बिन्दु पर्यन्त कोटि तृतीयभुज, इन कर्णभुजकोट से उत्पन्न द्वितीय त्रिभुज; इन दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से अनुपात करते हैं यदि शुध्यासापन रवि व्यासार्धभुज में रविकर्णकणं पाते हैं तो भूव्यासांचे भुज में क्या इस अनुपात से भूछाया दीर्घत्व आता है इसका स्वरूप= रविकणे. भूव्याई रव्याई भूव्याइ
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