यन्त्राध्यायः १४७३ को पूर्वापर रूप से स्थापन करने से कर्तरी संज्ञक यन्त्र होता है । पश्चिम बिन्दु में जो धनुष और उसका जो प्रान्त उससे आरम्भ कर ज्यामध्य स्थापित कीलच्छाया से मुक्त (त्यक्त) नाड़ी-घुनाडी (दिनगत घटी) होती है । इति ४४॥ ॥ उपपत्ति । चक्रयन्त्र ही का भेदान्तर कर्तरी यन्त्र है । नाडीवृत्तानुसार चक्रयन्त्र को स्थापन करने से पूर्ववत्र ही पश्चिम बिन्दु से कीलच्छायापर्यन्त घटी सूर्योदय से दिनगत स्थूल घटी होती है, पूर्व बिन्दु से ज्यों-ज्यों ऊपर जाते हैं त्यों त्यों पश्चिमबिन्दु से कीलच्छाया नीचे जाती है । यहां ‘समपूर्वापरमेतच स्थिरं स्थितं भवति कर्तरी यन्त्रम्' इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित लल्लाचार्योक्त श्रीपयुक्त के सदृश ही है । सिद्धान्तशिरोमणि के गोलाघ्याय में ‘भूस्थं भुवयष्टिस्थम्' इत्यादि से श्रीभास्कराचार्य ने इसी को नाड़ीवलय संज्ञक यन्त्र कहा है । यदि एक दिन में रवि की क्रान्ति स्थिर मानी जाय तब ही भास्कराचायोंक्ति से उन्नत घटी वास्तव हो सकती है परन्तु रवि की क्रान्ति प्रतिक्षण विलक्षण होती है इसलिये नाडिकाः स्थुला भवन्ति' यह आचार्योंक्त युक्तियुक्त है। इस यन्त्र से नतकाल ज्ञान सूक्ष्म होता है इति ॥४४॥ इदानीं पीठयन्त्रमाह । दृष्टपच्यं समपीठं यष्टिब्यासार्धमन्तिकं परिधौ । दिग्भगणांवमूर्धन्यग्रा घटिकादिभिश्चाझ्यम् ।।४५।। सु. भा.-एकं दृचौल्यं दृषौ व्यसमे प्रदेशे खे गतं यष्टि व्यासार्धमन्तिक समपीठं समं चाक्राकारं फलकं कार्यं । परिभो दिग्भिर्भ गणांशैस्तथा मूर्धनि परिध्यग्रभागेऽग्राघटिकादिभिरग्नोन्नतघटादिभिश्चाक्य पोठसलं यन्त्रं चक्र- यन्त्राकारं भवतीत्यर्थे ः॥४५॥ तथा च लल्लः- चक्रे वोध्वंशलाकं वदन्ति पीठं सुसिद्धाशम् । (शिष्यधीवृ० यन्त्राध्यायइलोक २५ ) वि. भा.-दृष्टयौच्च्यसभे प्रदेशे खे गतं यष्टिव्यासार्धमन्तिकं समपीठं (समं चक्राकारं फलकं कार्यं ) परिधो दिग्भिशृगणांशैः, मूर्धनि (परिध्यग्रभागे) अग्राघटिकादिभिः (अग्रोन्नत घटिकादिभिः) अङ्घी पीठयन्त्रे चक्राकारं भवतीति । "संसाधिताशं खलु चक्रयन्त्र पीठं भवत्यूर्वेशलकमेव पीठे तु सूर्योदय बिम्बवेधाद् भुक्तांशजीवा स्फुटमग्रका स्यात् । D
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