१४३० कल्पना कर अभीप्ट उन्नतांश से अनुपात द्वारा इष्ट घटी कहते हैं वे भूखें हैं। क्योंकि यदि दिनार्ध घी में मध्योन्नतांश पाते हैं तो इष्ट घटी में क्या इस अनुपात से जो इष्ट उन्नतांश आते हैं उसकी छाया वेधोपलब्ध इष्ट कालिक छाया के बराबर नहीं होती है इस लिये उनका आनयन ठीक नहीं है इति । सिद्धान्त शिरोमणि में ‘उन्नतलवसंगुणीकृतं युदलम् शूदलोन्नताशभक्त नाङघः स्थूलाः परेः प्रोक्ताः’ इससे भास्कराचार्य ने भी अन्यों के घटिका नयन का खण्डन किया है। अन्य के वाक्य इष्टोन्नतांशा युदलेन निघ्ना मध्योन्नतांशुविह्वः नाश्व नाडयः’ इत्यादि विज्ञान भाष्य में लिखित के अनुसार है । वस्तुतः इसका खण्डन आचार्य और भास्कराचार्य भी जो करते है सभीचीन है यह आचार्योक्त श्लोक के उपरिलिखित भाष्य से स्पष्ट है इति ।।११।। , । इदानीं यन्त्रेण नतोन्नतकालज्ञानमाह जीवां स्वाहोरात्रे परिकल्प्याग्रान्नतोन्नतत्रिज्याः अनुपातात् कार्यास्तुर्यगोलके चक्रके चैवम् ॥१२॥ सु. भा--स्वाहोरात्रे द्युज्यावृत्तेऽनुपाताद् द्वादश कोट्या पलकणंस्तदा शङ्कुकोटघा किमित्यनुपातात् जीवामिष्टहृतं प्रकल्प्य ततोऽग्राद्धनुः कोटघग्रान्न तत्रिज्याः कार्यास्त्रिज्यावशेन नतोन्नतकालौ कार्यो । अत्रैतदुक्तं भवति । इष्टहृति वोन त्रिज्यानुपातेनेष्टान्त्याः कार्याः । तत्र चरसंस्कारेण सूत्रमुत्पाद्य तत्सम ज्यां धनुषि दत्त्वा धनुरग्राद्या घटिकास्ताश्चरसंस्कृतोन्नतकालघटिकाः । ज्याया धनुर्यंन्त्राधरभागपर्यन्तं या घटिकास्ता नतकालघटिकाः। एवं गोलयुक्तिवशा न्न तोन्नतकालौ तुर्यगोलके तुरीये चक्र च भवत इति ॥ १२ ॥ वि. भा–स्वाहोरात्रे (युज्यावृत्ते) अनुपातात् द्वादशाङगुलशङ्कुना पलकर्णरत देशंकुना किमित्यनुपातेन समागतां हृतं जीवां परिकल्प्य ततोऽग्रात् (धनुःकोट्य ग्रा)नतोन्नतत्रिज्याः कार्याः। त्रिज्यावशेन नतोन्नतकाल काय, अर्थादिष्टहृतिवशेन त्रिज्यानुपातेने( इति त्रि इष्टान्या)धान्याः कार्या, तत्र वरज्या संस्कारेण सूत्रं ‘इष्टाष्टाचरज्या = सूत्रम्’ भवति । तत्तयां जीवां धनुषि दत्वा धनुरग्राद्य। घटिकास्ताक्षर संस्कृतोन्नतकाल घटिका भवंति । जवाया धनुः (चापं) यन्त्राघो भागपर्यन्तं या घटिकास्ता नतकालघटिकाः । एवं नतोन्नतकालौ तुरंगोलके (तुरीय यन्त्रे) चक्र (चक्रयन्त्रे) च भवत इति ॥१२॥ अब यन्त्र से नतकालज्ञान और उन्नतकालज्ञान को कहते हैं। हि. भा–युज्यावृत्त में अनुपात से ‘वादश कोटि में यदि पलकर्ण-कणं पाते हैं तो
पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/३४१
दिखावट