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पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/२६७

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१३५८ विधानात् ज्यादलानि यदि वाऽत्र भवन्ति” इत्यनेन श्रीपतिनाऽऽचार्योक्तमेव पुनरुक्तीकृतम् । सिद्धान्तशिरोमणौ भास्कराचार्येणापि-“त्रिज्योत्क्रमज्यानिह तेर्दलस्य मूलं तदर्धाशक शिञ्जिनी वा । तस्याः पुनस्तद्दलभागकानां कोटेश्च कोटयशदलस्य चैवम् ।' इत्यनेन तदेवोक्त वा वासनाभाष्ये सम्यगुपपादित मिति ॥२३॥ इति ज्या प्रकरणम् अब प्रकारान्तर से अर्धाशज्यानयन को कहते हैं हेि. भा.--यत्संख्यक ज्या की अर्धज्या लाते हैं तत्संख्यक उत्क्रमज्या से व्यास को गुणा कर वार से भाग देने से जो लब्ध हो उससे पूर्ववत् ज्यार्धानयन करना चाहिये। इस आनयन प्रकार से अन्य प्रानयन प्रकार छोटा नहीं है अर्थात् इस प्रकार से लाघव ही से ज्यार्ध सिद्ध होता है । उपपत्ति । यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (क) क्षेत्र को देखिये । के=वृत्तकेन्द्र । रयचाप =अ, इसी वाप का अधशज्यानयन करना है । यश =ज्याप्र, रश=उज्याप्र, रय=अ- चाप की पूर्णज्या, केश =चापकोटिज्या=कोज्याश्र केर=त्रिज्या=त्रि । तब केर-केश= रय=त्रि-कोज्याश्र=उज्याप्र, वर्ग करने से त्रि-२ त्रि. कोज्याअ-+-कोज्या'अ=उज्ला'अ परन्तु यश*+-रश*=अचाप पूर्णज्या'=ज्याश्र-+-उज्या'अ=त्रि-२ त्रि कोज्याश्र-4-को - ज्या'अ-+-ज्याश्र=त्रि-२ त्रि.कोज्याअ+त्रि'=२ त्रि'-२ त्रि. कोज्याश्र=अचापपूज्या =२ त्रि (त्रि-कोज्याश्र)=२ त्रि. उज्याअ=व्या X उज्याश्र दोनों पक्षों को चार से भाग व्यास-उज्याश्र - .. अचापपूज्या = ज्या १ अ इससे ‘तुल्य क्रमोत्क्रमज्या समः खण्डकवर्गयुतिचतुर्भागम्' इस पूर्वोक्त प्रथम प्रकार से अधशज्या और उसकी कोटिज्या से ज्यार्ध होता है इससे प्राचार्योक्त उपपन्न हुआ । २ त्रि (त्रि-कोज्याआ) ==अचापपूज्या ' २ त्रि. उज्याश्र दोनों पक्षों को वार से भाग देने से २ त्रि. उज्याप्र - त्रि. उज्याश्र श्रचापपूज्या ३श्र, मूल लेने से ज्या ई अ, इस से 'त्रिज्योत्क्रमण्या निहतेर्दलस्यमूलम्' इत्यादि भास्करोक्त उपपन्न होता है। सिद्धान्तशेखर में ‘उत्क्रमाविषमखण्डविनिघ्नाद्' इत्यादि श्रीपत्युक्त आचार्योक्त की ही पुनरुक्ति है । भास्करा चार्य ने भी त्रिज्योत्क्रमज्या निहतेर्दलस्य' इत्यादि इससे उसी को कह कर वसनाभाष्य में अच्छी तरह कहा है इति ॥२३॥ इति ज्या प्रकरण समाप्त हुआ