पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/२४८

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गोलाध्याय:

 से आकाश में किरगों के सन्चार से जितनी दूर तक अन्धकार नष्ट होता है उस्की आक्रुति व्रुत्ताकार नहीं होती है। इसलिये कल्प कुदिन और ग्रहगति योजन के चततुल्य यह खकक्षा कल्प में ग्रहों के भ्रमरा योजन अर्थात् कल्प में जितने योजन ग्रह् भ्रमरा करते है के बराबर होती है यह कह सकते हैं। खकक्षा के सम्बन्ध में आचायों का मत भिन्न भिन्न है इसलिये सिध्द्द्न्तशिरोमरि में ब्रह्माण्दमेतन्मितमरतु नो वा कल्पे ग्रह: क्रामरति योजनानि से भस्कराचर्य कहते है कि कल्प में जितने योजन ग्रह् भरमरा करते है ततुल्य ही सकक्षा योजन है मेरा मत है।
  
          कल्प में चन्द्रभगरा=२७७२३३०००० भ्रत:कल्प चंभगरा ३२४०००=*२७१२०६२००००००००=सकक्षा। भास्कराचार्यं ने भी कोतिघ्नैर्नखनन्दषट्कनख भू इत्यादि से आचार्योक्त सकक्षा तुल्य योजन भ्रमरा करते हैं एक भ्रमरा भोग से ग्रह स्वकक्षाव्रुत्त योजन भ्रमरा करथे हैं । तव अनुपात करते है यदि कल्प य्रहभजरा में सकक्षायोजन पाते है तो एक भगरा में क्या इस अनुपात से ग्रह कक्षा आती है सकक्षा/कग्रभ=ग्रहकक्षा,भ्रर्को भपष्ट्यं-श:अर्थात् नक्षत्र कक्षा का साटंबा भाग रवि कक्षा है इस भ्रागमप्रमा से भकक्षा/६०=रविकक्षा । भकक्षा=६०*रविकक्षा । इतने योजने पर सब ग्र्हों से ऊपर दूर में कितने नक्षत्र का व्रुत्त है,सूर्य सिध्दान्त में भवेदुभकक्षा तीक्ष्राशोभ्रँमरां षष्टितञितम् । सर्वोपरिष्टात् भ्र्मति योजननैस्तैर्भमण्ड्लम् सूयीश पुरुष की इस उक्ति के सध्यश ही आचायं ने कहा है यस्य भगरोर्विभक्तास्तत्कक्षा यह आचार्योक्त भी सैव यस्कल्प भगरोर्भक्ता तद्रुभ्रमरां भवेत् इस सूर्याश पुरुषोक्त के अनुरूप ही है॥
                    ग्रहा:कियन्ति योजनानि भ्रमन्तीत्याह ।
                भपरिधिसमानि षष्टया खपरिधितुल्यानि कल्परविवषै:।
              गच्चन्ति योजनानि ग्रहा: स्वकक्षासु तुल्यानि॥
 सु० भा०- षष्टया रविवर्षषष्टया ग्रहा: स्वकक्षासु भूपरिधिसमानि नक्षत्रकक्षसमानि योजनानि  कल्परविवर्षैश्व्व खपरिधितुल्यानि खकक्षासमानि योजनानि गच्चन्ति । तथा सवे ग्रहा: कल्पे तुल्यान्येव योजनानि खकक्षामितानि जच्चन्ति । 
                   अत्रोपपत्ति:।
   भास्करोक्तोन विधिना स्फुटा। नकक्षा=६० रकक्षा= खक/क सौव *६० खक=नक*कसौव/६० ।