( ७ ) लल्लाचार्य ने वलन और दृक्कर्म के आनयन को उत्कमज्या द्वारा किया है। ब्रह्मगुप्त की उक्ति में चतुर्वेदाचार्य की ‘अत्रज्याशब्देनोत्क्रमज्या ग्राह्या' व्याख्या को लक्ष्य कर भास्कराचार्य ने ‘ब्रह्मगुप्तकृतिरत्र सुन्दरी साऽन्यथा तदनुगैर्विचार्यते' कहा है । ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त के बहुत से स्थलों में वर्णन की स्थूलता अवश्य है, तथापि इसमें नाना प्रकार के विषयों का अपूर्वं समावेश है। अतएव ‘ाह्मस्फुटसिद्धान्त' सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त ग्रन्थ है, इस कथन में किसी प्रकार की विप्रतिपत्ति (विरोध) प्रतीत नहीं होती है। इस ग्रन्थ में ‘छन्दश्चित्युत्तराध्याय' नाम का एक अध्याय है। इसके अन्तर्गत श्लोकों की उपपति तो दूर की बात है, आज तक किसी विद्वान् ने इनकी व्याख्या तक नहीं की । प्रश्नाध्याय का जैसा क्रम इस ग्रन्थ में है वैसा अन्य ग्रन्थों में नहीं है। इसमें मध्य गति आदि (मध्यगत्युत्तराध्याय-स्पष्टगत्युत्तराध्याय-त्रिप्रश्नाध्याय-ग्रहणाध्याय तथा शृङ्गो न्नत्युत्तराध्याय) पाच अध्याय म पृथक्-पृथक् उत्तर सहित प्रश्नों प्रश्नाध्याय का विवेचन किया गया है। इसके अभ्यास से छात्रवृन्द सिद्धान्त विषय में निपुणता प्राप्त कर सकते हैं । सिद्धान्त शिरोमणि की भूमिका में ‘जीवा साधनं विनैव यद् भुजज्यानयनं कृतवान् श्रीपतिस्तत्त्वपूर्वमेव स्यात् यथा तत्प्रकारो विदां विनोदाय प्रदश्र्यते दोः कोटि भागरहिताभिहृताः खनागचन्द्रास्तदीयचरणेन शरार्कदिग्भिः । ते व्यासखण्डगुणिता विहृताः फलं तु ज्याभिविनापि भवतो भुजकोटिजीवे । इति केनापि लिखितमस्ति तन्नैव युक्तियुक्तम् ।। कहने का भाव यह है कि शिद्धान्त शिरोमणि की भूमिका में जीवासाधन विना ही श्रीपति ने जो भुजज्यानयन किया है वह अपूर्व ही है, उनके प्रकार को पंडितों के बिनोद के लिए दशतेि हैं ‘दोः कोटि भागरहिताः’ इत्यादि ही उनका सिद्धान्त शिरोमणि प्रकार है । भूसिका लेखक का यह उक्त लेख ठीक नहीं हैं, तथा सिद्धान्तशेखर क्योंकि ज्याविना भुजज्या और भुजकोटिज्या का आनयन और ज्या द्वारा चापानयन सर्वप्रथम ब्रह्मगुप्त ही ने किया है । ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त में कथित प्रकार अधोलिखित है भुजकोटय'शोनगुणा भार्धाशास्तच्चतुर्थभागोनैः । पञ्चद्वीन्दुखचन्द्रविभाजिता व्यासदलगुणिता ।। तज्ज्ये परमफलज्या सङ्गुणिता तत्फले विना ज्याभिः । इष्टोच्चनीचवृत्तव्यासार्ध परमफलजीवा ।। इष्टज्या से चापानयन्न प्रकार इष्टज्या संगुणिताः पञ्चकयमलैकशून्यचन्द्रमसः । इष्टज्या पादयुतव्यासार्धविभाजिता लब्धम् ।
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