८२ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते प्रवृत्तिः" इससे इसी ब्रह्मगुप्तोक्त बात को कहते हैं । वारप्रवृत्ति कब से होती है, इस विषय में बहुत आचार्यों के भिन्नभिन्न बहुत मत हैं। जैसे आर्यभटसिहाचार्य आदि आचार्यं प्रचदित रवि बिम्ब से दिनारम्भकाल को कहते हैं । अन्य आचार्यं दिनार्ध से दिनारम्भ कहते हैं। लाटदेव आदि आचार्य रवि के अधस्तकाल से उसको कहते हैं । यवन राजा । रात्रि में दश मुहूर्त करके उसको कहते हैं, लाटाचार्यं अपने सिद्धान्त ग्रन्थ में अर्धरात्रि से उसको कहते हैं । पन्वसिद्धान्तिका में वराहमिहिराचायं संस्कृतोपपत्ति में लिखित 'दिनबारप्रवृत्तिनं समा सर्वत्र कारणे कथिता’ इत्यादि पद्यों से इन्हीं विषयों को कहते हैं । सिद्धान्तशेखर में श्रीपति ने उपर्युक्त आर्यभटादि आचार्यों के मत का खण्डन किया है और ब्रह्मगुप्त कथित बात को स्वीकार किया है । जैसे सृष्टेर्मुखे ध्वान्तभये हि विश्वे ग्रहेषु सृष्टेष्वनपूर्वकेषु । दिनप्रवृत्तिस्तदधीश्वरस्य वारस्य तस्मादुदयास्प्रवृत्तिः । सृष्ट्यादि से पहले विश्व अन्धकारमय था जो सॉस्कृतोपपत्ति में लिखित भगवान मनु ‘आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्इत्यादि के इस वचन से विदित होता है, ऐसे समय में वाप्रवृत्ति के विचार सम्भव नहीं हैं क्योंकि उस समय में वारेश्वरग्रहों का अभाव रहता है। इसी कारण से रात्रि में वारप्रवृत्ति कहने वालों के मत ठीक नहीं कहे जा सकते हैं। मध्याह्न काल और अस्तमय काल से आरम्भ कर वारप्रवृत्ति कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस बात को स्वीकार करने से उतने काल तक दिन मानना पड़ेगा जो कि असङ्गत है। इसलिए रख्युदय काल से वारप्रवृत्ति मानने वाले आचार्यों का मत ही ठीक है। इस मत में भी देश भेद से वारप्रवृत्ति में भेद होता है, जैसे संस्कृतोपपत्ति में लिखित ‘वारप्रवृति मुनयो वदन्ति सूर्योदयद्रावणराजधान्याम्' इत्यादि पद्य से विदित होता है, इसी को संस्कृतोपपत्ति में लिखित लङ्कोदयाम्यसूत्र प्रथममपरतः पूर्वदेशे च पश्च'- इत्यादि पद्य द्वारा स्पष्ट किया है इति ॥३६॥ इदानीं तदर्थं देशान्तरकर्मणा त्रयेण प्रदर्शयति भूपरिधिः खखखशरारेख स्व क्षान्तरांशसङ्गणितः । भगणांशहृताः फलकृतिहीना देशान्तरस्य कृतिः ॥३७॥ शेषपदगुणभुक्तिर्भूपरिधिहृता कलादि लब्धमृणम् । उज्जयिनीयाम्योतररेखायः प्राग् धनं पश्चात् ॥३८॥ मध्यग्रहे स्फुटे वा भूपरिधिहुतात् पदात् गुणात् षष्ट्या । लब्धं घटिका अथवा कमं तिथावृणधनं ग्रहवत् ॥३८॥ वा . भा--परिधिः भूगोलस्य परिणाहः कियानित्यत आह खखखराराण इति पञ्चसहस्राणि योजनानामित्यर्थः । अत्र च देशान्तरक्क्ष्योनत्यादयः प्रमाणं
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