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पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/९६

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मध्यमाधिकार ७६ सम्बन्धिकलात्मकफलेन हीनो रेखदेशीयग्रहोऽभीष्टदेशोयग्रहो भवेत् रेखातः पश्चिम देशे तु पश्चाद्ग्रहदर्शनं भवत्यतस्तत्र रेखादेशोयग्रहृदभीष्टदेशोयग्रहस्याधिक्रत्वेन देशान्तरफलेन सहितो रेखदेशीयग्रहोऽभीष्टदेशय ग्रहो भवेदिति ॥३५॥ अब ग्रहणंण से साधित ग्रह कहां आते हैं सो कहते हैं हि. भ.-लङ्कायाम्योत्तररेखा में स्थित मनुष्यों के मध्यमरव्युदय काल में अहर्गण द्वारा साधित मध्यम ग्रह होते हैं, रेखा से पूर्व और पश्चिम देशों में क्रम से गणितागतग्रह में देशान्तर फल को घटाने और जोड़ने से अपने निरक्षोदयकालिक ग्रह होते हैं ।।३५।। उपपत्ति अहर्गण मध्यम सावन दिनों का समूह है इसलिए अहर्गण से सधित मध्यमग्रह अहर्गणान्त बिन्दुक होते हैं, वह बिन्दु (मध्यम सावनान्त विन्दु) क्रान्तिवृत्तस्थ मध्यमाकपरिगत ध्र ,व श्रोतवृत्त नाडीवृत्त के सम्पात बिन्दु ( स्पष्ट सावनान्त बिन्दु ) से पदवश से ऊपर और नीच होता है दोनों बिन्दुओं ( मध्यमसावनान्त बिन्दु और स्पष्ट सावनन्तबिन्दु ) के अन्तर को भास्कराचार्य उदयान्तर कहते हैं परन्तु ब्रह्मगुप्त उदयान्तर नहीं स्वीकार किये हैं इसलिए इनके मत से अहर्गण द्वारा सिद्ध ग्रह लङ्कायाम्योत्तर रेख में जो रहते हैं उनके मध्यमरव्युदय काल में होते हैं, रेखा से पूर्व देश में पहले ही ग्रह दर्शन होता है इसलिए रेखादेशीय ग्रह से अभीष्ट देशीय ग्रह के अल्पत्व के कारण देशान्तर फल को रेखदेशीय ग्रह में हीन करने से अभीष्ट देय ग्रह होते हैं। रेखा से पश्चिम देश में पीछे ग्रह दर्शन होता है इसलिए वहां रेखा देशीय ग्रह से अभीष्ट देशीय ग्रह के अधिकत्व के कारण रेखा देशय ग्रह में देशान्तर फल को जोड़ने से अभीष्ट ग्रह होते हैं, इति ॥३५ः। इदानीं तत्प्रतिपादनार्थमार्यामाह दिनवरादिः पश्चादुज्जयिनी दक्षिणोत्तरायाः प्राक् । देशान्तरघटिकाभिः पश्चात्प्राग् भवति रव्युदयात् ।३६। वा. भा.-दिनवारादिरप्रवृत्तिरित्यर्थःसा पश्चाद् भवति, स्वरव्युदयात् । क्व उज्जयिन दक्षिणोत्तरायाः प्राक् लंकासमयाम्योत्तररेखातः पूर्वदेशेष्वित्यर्थः। कियता कालेन देशान्तरघटिकाभिरिति, यतः पूर्वमेव रेखार्कोदयादकदयस्तेषु देशेषु, न च तत्र काले वारप्रवृत्तिरद्यापि रेखार्कोदयकाले यस्माद् भविष्यति दिनवारादिः। स च देशान्तरघटिकाभिव्यवहितं इत्यत इपपन्नं भुवो वृत्तत्वात् । पश्चात् प्रारभवति इति, उज्जयिनी दक्षिणोत्तररेखातः पश्चात्तु देशेषु प्राग्भवति, स्वरव्युदयात् पूर्वदिनवारप्रवृत्तिः पश्वाद्व्युदयस्तेषु यस्माद्रेखाकदयाद्तः प्राग्वारादिःतेषु देशान्तर