पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/५७४

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ग्रहयुयधिकारः ५५७ नतांश =त्रिभुज से ज्यापृदृग्ज्या तब पूर्वोक्त में अनुपात प्रह पुढच्या दुव्या ग्रहकणं = प्रप दृग्ज्या भूव्या प्रलम्बनया, एवं = ग्रस्रवज्पा दोनों के अन्तर करने से चाप का ग्रहणं लम्बन सम्बन्धिनी कला होती है, एवं ग्रहदृग्ज्या, हक्क्षेप, दृग्लम्बनज्या वश से दोनों ग्रहों की पूयक् पयक् नति साधन करना, घटादिक लम्बन ज्ञानार्थं यदि ग्रह गयन्तर कला में साठ घटी पाते हैं तो लम्बन कला में क्या इससे लम्बन घटी आती है, दोनों ग्रहों में यदि एक वक्री हो और दूसरा मार्ग हो तो गतियोग से पूर्ववत् अनुपात से घट्यादिक लस्बन होता है इति । अथ प्रहयुतौ लम्बनानयनमाह। ग्राह्या वित्रिभविलग्नविशेषज्या हता विपद लग्न नरेण । aधासखण्डकृतिद्वत्फलमाहुर्लम्बनं परमलम्बननिघ्नम् ॥ वि. भा–ग्राह्यस्य वित्रिभलग्नस्य चान्तरज्या विषदलग्ननरेणा (वित्रिभ शकुन) हवा (गुणिता) व्यासखण्डकृतिहृत् (त्रिज्यावर्गा भक्ता) फलं परम लम्बन निघ्नं (परम लम्बनेन गुणितं) तदा लम्बनं भवतीत्याचार्यां आहुरिति, अत्रोपपत्तिः । अथ परम लम्बनं=४ घटी, तदा त्रिभोनलग्नाकं विशेषशिञ्जिनीकृता हता व्यासदलेन भाजितेश्यादि भास्करोक्त विधिना घट्यादि लम्बनम्, =वित्रिभार्यान्तरज्या४४४ वित्रिभ शङ्कु त्रि. त्रि. वित्रिभान्तरज्यापरमलं विशङ्कु त्रि. त्रि. ग्राह्यग्रह वित्रिभलग्नान्तरज्या. परमलं. वित्रिभशङ्कु, -घट्यदि लम्बनम् त्रि. त्रि. अब हथति में सबननयन को कहते हैं । हि a• भा. – ‘श्राद्धवित्रिमविलग्नविषज्या इता विपदलननरेट" इत्यादि ऊपर लिखित रलोक को देखिये । ग्राह्यग्रह और वित्रिभ लग्न की अन्तरज्या को वित्रिमझकु से गुणा कर