४४ ब्रह्मस्फुटसिद्धान्ते उत्क्रमज्या करनी चाहिये। यदि अन्तरश नब्बे से अधिक हो तो अधिक चापांश को जो क्रमज्या हो उसको त्रिज्या में जोड़ना तब जो उरुक्रमज्या हो उसको चन्द्रबिम्ब से गुणाकर द्विगुणित त्रिज्या से भाग देने से दूसरा सित मान होता है, यह द्वितीय प्रकार है, रात्रि में शृङ्गोन्नति साधन करना हो तो प्रथम प्रका रागत सितमन ग्रहण करना चाहिये । यदि दिन में श्रृंगोन्नति सामान करना हो तो द्वितीय प्रकारागत सितमान ग्रहण करना चाहिये । रवि श्रौर चन्द्र के अन्तरांश की पूर्णज्या रविदिशा का कर्ण होता है, चन्द्र के सित को रवि कर्णगति से देते हैं इति ॥११-१२-१३॥ उपपत्ति पूर्णान्तकाल में रवि और चन्द्र का अन्तरांश=१८०° वहां सम्पूर्ण चन्द्रबिम्ब शुक्ल होता है। इसलिये “यदि एक सौ अस्सी रविचन्द्रान्तरांश में सम्पूर्ण चन्द्रबिम्बतुल्य शुक्ल पाते हैं तो इष्ट रवि और चन्द्र के अन्तरांश में क्य" इस अनुपात से शुक्ल प्रमाण रविचन्द्रान्तरांश xचन्द्रबिम्ब रविचन्द्रान्तरांश xचंबि १८० १८० सूयनचन्द्रांशाखं Xचंब प्रकार से रात्रि श्रृंगोन्नति साधन में शुक्लानयन इस में ३० करना चाहिये। दिन में शुक्लानयन के लिये अधोलिखित विधि समइनी चाहिये। जब रवि चन्द्रान्तरांश=०, तदा शुक्लमान ==०, जब रविचन्द्रान्तरांश = १८० तब चन्द्रबिम्बतुल्य शुक्लमान होता है, जब रविचन्द्रान्तरांश=६० तब चन्द्रबिम्बाधंतुल्य शुक्लमान होता है, इन बातों को भास्कराचार्य से प्राचीन सब आचार्यों ने स्वीकार किया है। रवि और चन्द्र के अग्तरांश की उम्र मया से प्रत्यक्ष शुक्ल वृद्धि देखने से ‘यदि त्रिज्या तुल्यरविचन्द्रान्तरांशोरक्कमज्या में चन्द्रबिम्ब तुल्य शुक्ल पाते हैं अथवा द्विगुणित त्रिज्या तुल्य हिंगुणित भुजांशोत्क्रमज्या में चन्द्रबिम्ब तुल्य शुक्ल पाते हैं तो इष्ट द्विगुण भुजांघो मज्जा में क्या इससे जो शुक्ल मान प्राता है वह दिनोपयोगी होता है, लल्लोक्त मार्ग का अनुसरण करके प्र।चार्य ने उत्क्रमज्या से अनुपात किया है । दिन में रवि के तेज से दृष्टि दोष से अल्प सितभाग लक्षित होता है, दोनों सन्ध्याओं में सित में वैषम्य उपलब्ध होता है। इसलिए तारतम्य से उन दोनों (प्रथम प्रकारागत तथा द्वितीय प्रकारागत) सित प्रमाणों का योगाधं के बराबर शुक्लमान आचार्यों ने स्वीकार किया है । सिद्धान्तदर्पण में "व्यर्कशीत फिरणार्घभुजांशान् इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोक से रात्रि में उपयोगी शुक्ल मान तथा “द्वघ्नबाहुलवबोत्क्रमजीवा” इत्यदि संस्कृत उपपत्ति में लिखित श्लोक से इससे दिनोपयोगी शुक्लमान, "द्विगुणश्रुजलवाश्चेद् खङ्भागाविकाः स्युः”’ इत्यादि संस्कृत
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