४८० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते शुक्ल का उपचय-अपचय आदि होता है तब गणितागत चन्द्र से शुक्ल के उपचय अपचय आदि) का ज्ञान क्यों होता है अर्थात् गणित विधि से उन का ज्ञान नहीं होना चाहिये, और यदि रवि से चन्द्र ऊपर है तब चन्द्र के नीचे का आधाभाग (मनुष्य के लिए दृश्य भाग) सदा शुक्ल होना चाहिये, परन्तु दृष्टि से वह सदा शुक्ल देखने में नहीं आता है इसलिये रवि से चन्द्र ऊपर नहीं । है, यदि रवि से चन्द्र को नीचा मानकर गणित से शुक्लदि लाते हैं। तो वे सर्वेया दृष्टि योग्य होते हैं अतः रवि से चन्द्र नीचा ही है, यह सिद्ध होता है, पुरा णोक्त दोनों मत (शाप से चन्द्र शुक्ल की वृद्धि और हानि होना तथा रवि से चन्द्र ऊपर है) ठीक नहीं है यह ऊपर प्रदशित युक्तियों से सिद्ध हुआ । सिद्धान्त शेखर में श्रीपति “शापाद्य दीन्दोः सितवृद्धि हानी' इत्यादि से इन्हीं बातों को कहते हैं इति ॥ १ ॥ I इदानीं चन्द्र बिम्बे सितवृद्धिहान्योः कारणमाह। रबिद्दष्ट सितमर्घ कृष्णमदृष्टं यथाऽऽतपस्थस्य । कुम्भस्य तथासन्नं रवेरघः स्थस्य चन्द्रस्य ॥ २॥ सु. भा.--तदासन्नं तादृगेव । अन्यत् स्पष्टम् ।। २ । वि. भा. -यथाऽऽतपस्थस्य (रौद्र स्थितस्य) कुम्भस्य (घटस्य) रविदृष्टं (रविण दृष्टियोग्यमर्थाद्रव्यभिमुखं) अघं सितं (स्वच्छं) भवति, अदृष्टं (दृष्टि- योग्यानर्हमर्थाद्रवितो विरुद्धदिशं) अर्घ कृष्णं (असितं) भवति तथासन्नं (तादृश मेव) रवेरघः स्थस्य चन्द्रस्यार्थाद्रव्यभिमुखं चन्द्र बिम्बाधं सितं तद्विरुद्धदिशि चन्द्र बिम्बाधं कृष्णं (असितं) भवतीति । सिद्धान्तशेखरे श्रीपतिना "धाम्ना धामनिधेरयं जलमयो धत्ते सुधादीधिति; सद्यः कुत्तमृणालकन्दविशदच्छायां विवस्वद्दिशि। हम्” घनघणेः कर्घंट इवान्यस्मिन् विभागे पुनर्वाला कुन्तल कालता कलयति स्वस्यास्तनोश्छायया” ऽनेनैवमुक्तस तथोक्तार्थमेवा “पाथोमये शीतकरेऽकरश्मयो विमूछता घ्नन्ति तमस्विनीतमः। निकेतनाभ्यन्तरगं तमः स्वयं यथा त एवामल दर्पणाश्रिता:" नेन विशदयति, परमियं ‘सलिलमये शशिनि रवेर्दीधितयो मूच्छितास्तमो नैशम् । क्षपयन्ति दर्पणोदरनिहिता इव मन्दि रस्यान्तः ॥“ वराहमिहिरोक्तरस्या एव पुनरुक्तिः । सिद्धान्तशिरोमणौ भास्करा ‘तरणिकिरणसङ्गादेषपीयूषपिण्डो दिनकर दिशि चन्द्रश्चन्द्रिकाभिश्चकास्ति । तदितरदिशि बाला कुन्तलश्यामलश्रीर्बट इव निजमूतिच्छाययैवातपस्थः ।” छन्दोऽन्तरेण श्रीपतेः काव्यकला कौशलमेवोक्तमिति विज्ञश्विन्त्यमिति ॥ २॥ अब चन्द्र बिम्ब में सितवृद्धि और सित हानि के कारण को कहते हैं । tह- भा.-- जैसे धूप में स्थित बड़े का रवि की तरफ का आधा भाग सित (स्वच्छ) होता है और रवि से भिन्नदिश का आधा भाग कृष्ण (ग्रसित) होता है ।
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