पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/४६३

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३४६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते तीक्ष्णत्वान्न विवस्वतः” वमुक्तम् परमत्रोपलब्धिरेव वासना नान्यत्कारणं वक्तु” शक्यत इति ॥२०।। अब मादेवय (कहने योग्य) पर अनादेश्य (नहीं कहने योग्य) ग्रहण के नियम को कहते हैं हि- भा.-अन्य वलन आदि चन्द्रग्रहणक्तवत् समझना चाहिये। रवि के तेज । की तीक्ष्णता के कारण द्वादशांश से न्यून ग्रहण को नहीं कहना चाहिये क्योंकि द्वादशांश ग्रस्त रहने पर भी देखने में नहीं आता है, चन्द्रमा की स्वच्छता के कारण सोलह अंश से न्यून ग्रहण को नहीं कहना चाहिये (गों में), सिद्धान्तशेखर में ‘‘तेजस्तैक्ष्ण्यालोक्ष्ट गोर्मण्डलस्य" इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित इलोक से श्रीपति ने इस तरह कहा है. इसी श्रीपति प्रकार को कुछ परिवत्तत कर भास्कराचार्य इस तरह कहते हैं "इन्दोर्भागः षोड्शः खन्डितोऽपि" इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित इलोकोक्त के अनुसार सूर्यसिद्धान्त में "स्वच्छस्वात् द्वादशांशोऽपि" इत्यादि के अनुसार कहा गया है, लेकिन इन में वे वल उपलब्धि को ही उपपति कह सकते हैं, दूसरा कारण कुछ भी नहीं कहा जा सकता है इति।।२०। इदानों स्वप्रशंसामाह न स्फुटमार्यभटाविष्वर्कग्रहणं यतस्ततः स्पष्टम् । शङ्कुज्यया कृतं लघु लघुतरमेवं रवेगंहणम् ॥२१॥ सु- भा.-शङकुज्यया वित्रिभशङ्खुन मया लघु कृतमित्याचार्याशयः। एवमग्रे वक्ष्यमाणप्रकारेण रवेग्रहणं रविग्रहणसाधनं लघुतरं च भवति । शेषं स्फुटार्थम् ॥२१ वि.भा-यज्ञः (यस्मात्कारणात्) आर्यभटादिg(आर्यभटश्रीषेणचन्द्रजात्रेषु प्रन्येषु}अर्कोहणं (सूर्यग्रहणं) फुट नास्ति ततः तस्मात् कारणात्) शङ्कुज्यया (वित्रिभशङ्कुना) मया स्पष्ट लघुकृतम् । एवमनं वक्ष्यमाणप्रकारेण रवेर्हणं (सूर्यग्रहणसाधनं) लघुतरं च भवतीति ॥२१॥ अब अपनी प्रशंसा को कहते हैं हि.भा.-जिस कारण से आर्यभट.श्रीषेण प्रभृति आचायों के प्रन्यों में सूर्यग्रहण घन फुट नहीं है, उस कारण से वित्रिभ शङ्कु से मैंने स्पष्ट और लघु किया, एवं आर्गे क्टि प्रकार से सूर्यग्रहण साधन लघुतर.(प्रतिलघु) होता है इति.२१॥