पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/४४६

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सूर्यग्रहणाधिकारः ४२९ लिकमुचितम् । परन्त्वत्र मध्यकालिक स्पष्टशरवशात् स्थित्यर्ध स्थिरं गृहीत्वाऽऽनयनं कृतमतः स्थूलं सूक्ष्मार्थमग्रे प्रकारान्तरं कथयत्याचार्य इति। सिद्धानशेखरे ‘शिय न्तात् स्थिति खण्ड हीनसहितात् प्राग्वत्ततोलम्बनं कुर्यात् प्रग्रहमोक्षयोः स्थि- दलं युक्त विधायासकृत् । तन्मध्यग्रहणोत्थ लम्वनभुवा विश्लेषणानेहसा मर्दार्धेन युतातिथेरपि तथा सम्मीलनोन्मीलने। अधिकमृणयोराधं मध्यात्तथा ऽन्त्यमिहाल्पर्क भवति धनयोश्चायं हीनं यदाऽधिकमंतिमम् । नमनविवरेणैवं कुर्याद्विहो । नमतोऽन्यथा स्थितिदलस्वस्थे भेदे तदैक्ययुतं पुनः" ऽनेन श्रीपतिना, “स्थित्यर्धेनाधिकात् प्राग्वत् तथ्यन्ताल्लम्वन पुनः। ग्रासमोक्षोद्भवं साध्यं तन्मध्यहरिजान्तरम् । प्राकपाले ऽधिक’ मध्याद् भवेत् प्रग्रहणं यदि । मौक्षिकी लम्वनं होनं पश्चाद्धेतु विपर्ययः। तदा मोक्ष स्थितिदले देयं प्रग्रहणे तथा। हरिजान्तरक शोध्यं यत्रैतत् स्याद्विपर्ययः । एतदुक्त कपालैक्ये तद् भेदे लम्बनैकता। स्वे स्वे स्थितिदले योज्या विमर्दार्धेऽपि चोक्तवत्” इति सूर्य सिद्धान्तोक्त रा चायंक्त श्च सर्वथा सदृशमेवोक्तमिति ।। १४१५ अथ स्फुट स्थित्यर्ध और स्फुटविमर्दार्च के साधन को कहते हैं । हि. भा.-चन्द्रग्रहणवत् आये हुये स्थित्यर्ध करके हीन और युत तिथ्यन्त (स्पष्ट दर्शान्त) से पूर्ववत् असकृत् त्रिधि से लम्बन साघन करना जब तक अविशेष हो, यहां यह कहा जाता है कि स्पर्श काल ज्ञान के लिये स्थित्यधं रहित तिथ्यन्त से तथा मोक्ष कल ज्ञान के लिये स्थित्यधं सहित तिथ्यन्त से असकृत् विधि से लम्बन को स्थिर करना, यदि वह लम्बन मध्यदशन्त कालिक लम्बन से अधिक और ऊन (अल्प) हो अर्थात् स्पासिक सम्बन मध्य- कालिक लम्बन से अधिक और मौक्षिक लम्बन अल्प हो तथा मध्यकालिक लम्बन और स्प कालिफ़ लम्बन दो न ऋण हो तब उन दोनों ऋणों के अन्तर को पूर्व सचित स्थित्यर्ध में जोड़ देना चाहिये, यदि मध्यलम्बन से स्पाशक लम्बस न्यून हो और मौक्षिक लम्बन अधिक हो तथा मध्यकालिक और स्पर्शकालिक लम्बन तथा मध्यकालिक और मोक्ष कालिक लम्बन घन हो तो भी उन दोनों धनों के अन्तर को स्यित्यथै में जोड़ना चाहिये। यदि एक लम्बन ऋण रहे और दूसरा लम्बन धन रहे तव दोनों के योग को स्थित्यर्ध में जोड़ना चाहिये । इस तरह स्पाशिक और मौक्षिक स्यित्यधं स्फुट होता है, एवं संमीलन कालिक विमर्दार्च और उन्मीलन कालिक विमदवं स्फुट होता है अर्थात् जैसे चन्द्रवत् स्थित्यर्धा को लेकर स्फुट स्थि त्यवं सावित होता है उसी तरह स्यित्यर्थं स्थान में चन्द्रवत् विमर्दार्च को ग्रहण करके स्फुट विमर्दीचे साधन करना इति । १४-१५ ।। उपपत्ति । स्थिरी भूत स्पनॅ कालिक, मध्यकालिक और मोक्ष कालिक लम्बन क्रम से ल, ल, ल, ऋण है, मध्यम स्वित्यवं=स्व, गणितागत दर्शान्त कालदतव स्फुट स्पर्शकाल= द,-स्थि-स=स्प, स्फुट मध्यकाल=द-ल,=म, स्फुट मोक्ष काल=द+स्थि-ल,