४१४ न्या(लं.विशं रूपलंब्यापृदृज्या –(अॅ+ओ) विशं »पलंज्या तव.करुन, कस्य अॅ+), ज्या पृदृश्यानि स्य चापीयजात्य त्रिभुजों के सजातीयत्व से ज्या(अ+लं).विशं पलंज्या. , त्रि त्रिॐ त्रि ^शकोज्या ज्यस्यास्था =स्वष्टलम्वनज्या,य आचार्यों ने स्वल्पान्तर से पलंज्या=पलं, स्पष्टलम्बनञ्जय। = सपष्टलम्बन,=लं स्वीकार किया है, तब. ब्या()विशंपलं घटयात्मक करने से६०४ स्पष्टलम्बन कला = स्पष्टलंघटी= ज्याअ ). .(+लंविशं गत्यन्तरकला ६० गत्यन्तर xशज्य गत्यर त- परन्तु स पटी, पात (बं.विज्ञx_v (१) यहां आचार्य नेशकोष्या=त्रि, लं=० स्वीकार किया है, तब स्पष्टलंघटी=' ज्या अं विओ.४. त्रि.नि ज्याअं ज्याअं त्रि _, --फल,लेकिन यहां आचार्य ने जिस स्पष्टलम्बन का प्रानयन किया है। फल ऽविशं विशी उसी का मान शून्य मान लिया है तथा शरकोज्या =त्रि, तथा ज्या और चाप का अभेदत्व जनित दोष भी है ही इसलिये यह आनयन ठीक नहीं है, इससे आचार्योक्त पद्य उपपन्न होता है, इसी से "वेदनशङ्कुविहृतात्” इत्यादि सिद्धान्त शेखर में श्रीपयुक्त पद्य उपगन्त होता है जो कि प्राचायक्त के अनुरूप ही है, (१) इससे त्रिभोनलग्नाकुविशेषशिञ्जिन" इत्यादि सिद्धान्तशिरोमणिस्य भास्करोक्त पद्य उपपन्न होता है, पूर्वोक्त स्पष्टलम्बनघटीः ज्यामं ज्याअं ज्याअं ज्याअं ज् इससे एकज्यावर्गातरछेदो नेि (वि ) एकराशिज्या एकराशिज्य - छद " ४विशं = दृगतज्या सdवं दृगातिजीवया" इत्यादि सूर्यसिद्धान्तोक्त स्पष्टलम्बनानयन उपपन्न होता है, लेकिन इन आनयनों में कुछ भी भेद नहीं है इति ।। अब वास्तवानयन को कहते हैं वलंघ्या. पृदृज्या, =दृलंज्या, परन्तु पदृञ्जया=ड्या (न+ओ) । यहाँ गर्मीयनतांक
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