पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/३६५

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३४८ त्रिज्यागोलेऽग्रा=प्र =यत्रिॐ त्रि-भु छेदगमेन यत्रिक¥भुत्रिक=यत्रिक =त्रि.मु.क वा य-क+मु.क= क + भु.क समशोधनेन भु.क भु.क=य.क य.क=य (क८ऋ) :. भु.क-भु.क =यः एतेनोपपन्नमाचयॉक्तम् सिद्धान्त क== शेखरे ‘‘छायाफ्रेन्द्रघपरान्तरद्वयविपर्यस्तस्वकर्णाहतिप्रोद्भूतं विवरं दितेः सदृशयो रैक्यं च भिन्नाशयोः । तद्भक्त श्रवणान्तरेण विषुवच्छाया स्फुट जायते। श्रीपतेरयं प्रकारःसिद्धान्तशिरोमणौ ‘भाद्वयस्य भुजयोः समाशयोर्युस्तकण' हतयोर्यदन्तरम् । ऐक्यमन्यककुभोः पलप्रभा जायते श्रुतिवियोगभजितम्" भास्करा चायंप्रकारोऽप्याचार्योक्तानुरूष एवेति ॥५७ अब भुजद्वयज्ञान से पल भा ज्ञान को कहते हैं । हि. भा.-शङ्कुसूल और पूर्वी पर रेखा का अन्तर भुज है, इस तरह भुजद्वय और व्यग्तव णं (उटा एं) घlत अत्र प्रथम भुज और द्वितीय छ।यlव एंघात तथा द्वितीयभुज प्रथमछायाकर्णघत के एक दिशा में अन्तर भिन्न दिशा में योग को छाया कर्णान्सर से भाग देने से पलभा होती है इति ॥५७ ॥ कल्पना करते हैं घनशः य । छायाकर्णगोल में भुश्च । छापक एंगोल में द्वितीयमुज=मु। छायाकर्णय =क । क तब कर्णवृत्ताग्रा=य +भु । कर्णावृताग्न=य (य + ) गोल में प्रश- मत्रि (य==भू) त्रि +भु इससे त्रिज्या =अ । एवं ' यत्रि==भ.त्रि यत्रि==भूत्र गसि.=त्रिज्यागोल में अग्राः =य=अ , छेदगम से यक+गुरू =पकडॅकी समशोचन से भ्रू-.क=यक¢यक=य कंक सु. भु-क

य=* इससे प्राचार्यांत उपपल हुआ । सिद्धान्तशेखर में "छायागं न्द्रय-

परान्वख यविषयंस्तस्वकर्णाहति इत्यादि संस्कृतोपपति में लिखित श्रीपतिप्रकारतथा सभमिति में "गढ़वस्य ध्रुवमोः समाघ्योः ’ इत्यादि भास्करोक्त प्रकार आचार्यलक्षनुरूप ही है इति ॥१७॥