पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/३२४

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त्रिप्रश्नाधिकारः ०७ अब पुन: वेदादि के प्रनयन को कहते हैं। हि भा.-पूर्व साधित इप्टान्रया को घुया मे गुणा कर त्रिज्या में भाग देने में वा (प्रकारान्तर से) छेद (इप्ट्ह्त) होता है । उससे पूर्वावतु शङ्कु आदि होता है, ज्या स्त्रहो रात्रर्वधनहू' इस अग्रिन इनोक के साथ सम्बन्ध है इति ॥३०॥ उपपति भूकेन्द्र से ग्रहोपरिगत ध्र,वप्रोतवृत्त और नाडीवृत्त की सम्पातगतुरेव त्रिज्या, प्रहोपरिगत ध्रुवप्रोतवृत्त और नाडी वृत्त के सम्पात से पूर्वोक्त पूर्वापर मूत्र की समानान्तर रेखा के ऊपर लम्बरैखा इष्टान्त्या, भूकेन्द्र से इष्टान्या मूलगतरेखा, इन तीनों भुग मे उत्पन्न एक त्रिभुज, अहोरात्रवृत्त के गमंकेन्द्र से ग्रहगत रेल द्युज्या, प्रह से स्वोदयास्त सूत्र के ऊपर लम्ब रेखा इष्टहृति, अहोरात्रवृत्त के गर्भकेन्द्र से इष्टद्°त मूनतरेखा, इन तीनों भुजों से उत्पन्न द्वितीय त्रिमुत्र, ये दोनों त्रिभुज सजातीय हैं इसलिये अनुपात करते हैं यदि त्रिज्या में दखल्या पाते हैं तो युज्या में क्या इससे इष्टद्दति मानी है। इष्टान्या. =इष्टहृति, इससे पूर्ववद् वङ्कु आदि का ज्ञान मुगम ही है इति ॥३०॥ इदानीं प्रकारान्तरेण छायाकर्ण शंकु चाह व्यासाद्य कृतिऍणिता विषुवत्कर्णेन वा भवेत् कर्णः । लम्बगुणो वा घातः शङ्कुर्यासार्धकृतिभक्तः ॥।३१॥ घातो वाऽर्कगुणस्त्रिया विषुवत्कर्वषहृतः संक्रुः। कर्णकृतेः संशोध्य ( द्वादशवगं पदं यया ॥॥३२॥ वा. भा--अत्रेयं वासना भूमध्याद्वैपरीत्येन त्रैराशिकत्रयं भवत्या प्रकल्पिता। तद्यथा यदि छायाकर्णस्य द्वादशशंकुस्तद्वयासर्घकर्णस्य कः शंभुरिति में बृहच्छकु: ततो यदि लंबककोटेव्यमर्चक्रणंः तदस्या वा कुकोटे कणं दक्षिणतर वगाहिन वृत्ते फलं वेद: ततस्तृतीयं यदि स्वाहोरात्रवृत्तेऽयं वेदः । तदुभ्यासार्षतुं क इति फल ज्या एवमवस्थिते लंबकस्थाने द्वादशशंकुः कोटिः ईसायंस्थाने विषुवत्कर्णः कर्णः प्रथमत्रैराशिके द्वादशक गूढः झारो द्वितीये भागहारस्तुल्य त्वातयोर्नाशे कृते व्यासाचंस्याब्यासार्धमेव गुणकार विद्युबकश्च स्वाहोरात्रार्ध छायाकर्णयोघांतो भागहाः फलं ज्या भवति । 'दा पुनस्तस्येण भज्यराः स्वाहोरात्रायंज्योषतेन भागो हि क्रियते तदा फलं यथाकर्ता अवस्थेतसर्षे मोले प्रदर्शयेदिति ज्याप्रकारान्तरेण ङमवानयनमुर रानाह 'संबञ्चरो वा त: ओड् व्यासार्धकृतिभक्तः' अथवा घ्याबाहो शत्रर्षे 7d न्यवेशवसम्बज्थया संज्ञाप्य सुदृढं भुज्यते यावदिहोन्मंडलादयो रविः ितिबाधोपरि ष्वुन्मुंडसन्तरणस्य स्व गोरा