त्रिप्रदानाधिकारः जीवे (अक्षज्यालस्वज्ये) भवनोऽथनम्त्रगोन्क्रमज्योना त्रिज्याऽक्षज्या . अक्षांशो- संक्रमज्योना त्रिज्या लम्बज्या भवतीति ॥ १० ॥ अत्रोपपत्तिः पूर्वश्लोके वर्गानुपातेन लम्बाक्षज्ययोर्वेगवानय तन्मुलेन लम्बाक्षज्ये समा नात अत्रमाधारणानुपातेन तयोरानयनमस्ति त्रि. -लम्बुभोत्क्रमज्या= अक्षज्या. त्रि-अक्षांशोत्क्रमज्या= लम्बज्या, मिद्धान्नशेखरे 'लम्बाक्षभगोत्क्रमशजनो या तनया त्रिमौवीं रहितेतरा ar’ इत्यनेन श्रीपतिना, 'ये दोः कोट्योस्तः क्रमज्ये तदूने त्रिज्ये ते वा कोटिदोरुत्क्रमज्ये' इति विलोमेन भास्करेणाऽपि तदेव कथ्यत इति ॥१७ अब प्रकारान्तर मे उन दोों (लम्बज्या भोर अक्षज्या) के माघन को कहते हैं । भा-त्रिज्या को पृथक् द्वादश से और पलभा मे गुणा कर पलकर्ण से भाग देने से लम्बज्या और अक्षज्या होती है, वा त्रिज्या में लम्बांश की के उन्कमज्या को घटाने से अक्षज्या होती है, तथा त्रिज्या मे में अक्षांशोन्क्रमज्या को घटाने से शेष सम्याज्या होती है इति ॥१० पहले के इलोक में वर्गानुपात से नम्बज्यावर्ग और अक्षज्यावर्ग माझर मूल मेकर सम्बया और अक्षज्या लाये हैं, यहां साधारण अनुपात से उन दोनों का मानयन है, त्रि-लम्ब शोत्क्रमज्या= अक्षज्या, त्रि-अक्षांशोत्क्रमज्यालम्बज्या, सिद्धान्त शेखर में ‘सबाक्षभा- गोक्रमशिञ्जिनी या' इत्यादि से श्रीपति तथा 'ये दो कोट्यस्तः क्रमज्ये तद्ने त्रिज्ये ते वा कोटिदोरुत्क्रम ज्ये' इसके विलोम से भास्कराचार्य भी इसी बात को कहते हैं इति ॥ १० ॥ पुनः प्रकारान्तरेण लम्बाक्षज्ये आह लम्बक्षांशान् नवतेः प्रोड् (हित्वा) ज्या साध्या तदा बा । (प्रकारान्तरेण) इतरा ज्या स्यादर्थाल्लम्गांशोननवतेज्र्याऽक्षज्या, अक्षांशोननवतेज्या लम्ज्या, अक्षलम्बज्ये-शंकुच्छायागुणिते (द्वादशपलभागुणिते) छायादादाहृते (पसभा द्वादश भक्त) तदा वा (प्रकारान्तरेण )ऽन्ये लम्बाक्षज्ये भवत इति ॥१११॥ ज्या (९०–अक्षांश ) = शस्त्रज्या, ज्या (९०-शम्यांश ) = अक्षज्या, मा अक्षज्या x १२ लंज्या, तथा प्रभासंज्या = अवज्या, एतावताचार्या- १२ तमुपपद्यते ॥ ११ ॥ =
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