पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/२८७

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ऊपर सम्य शकुंतल है, मग्रा और शकुंतल का संस्कार करने से शक मूल से पूर्वापरसूत्र के ऊपर लम्ब मुज होता है, त्रिज्या व्यासार्ध में यदि त्रिज्याप्रीय अग्रा पाते हैं तो छाया कणं में क्या इससे आती है यायाकर्णवृत्ताग्राः अग्राश्चाकणं, परन्तु छायाकर्ण गोल में १२. १२x त्रि पनभा शकुंतल के बराबर होती है जैसे मलाई = शङ्कतल, : १२ अतः उत्यापन से पलमाः १२xत्रि ==. शकं तद, छायाकर्ण गोल में परिणामन करते हैं । त्रिxछकर्ण पनवेल ऍ=पलमा=शङ्कतल , इसलिए छायाकर्ण गोल में अग्रा और कर्ण. त्रि पलभा के संस्कार से भुज होता है, भास्कराचार्य ने छायाग्र और पूर्वापररेखा के अन्तर को भुज स्वीकार कर छायाकर्णं वृत्ताग्रा को व्यस्त गोलक और पलभा को उत्तर कल्पित किया है यहां आचायं लधुशबू मूल और पूर्वापररेखा के अन्तर को भुज स्वीकार कर अग्रामीरं पलभा को यथादिक्क (जिस दिशा के जो हैं उसी दिशा के) ही स्थापित किये हैं, भुजस्याने इसका आगे से सम्बन्ध है इति ॥४॥ वि. भ.--प्राच्यपरायाः (पूर्वपरायाः) सकाशाद्यथा दिग्गतस्य भुजस्याग्र शङ्कुमूलं बोध्यम् । छायाभुजकृतिविशेषमूलं (छायाभुजयोर्वर्गान्तरमूलं) यद् भवेत्तदेव छायाभुजाग्रयोरन्तरं प्राच्यपरा (पूर्वापरा) कोटिर्भवेदिति ॥५॥ । अत्रोपपत्तिः शङ्कुमूलात्पूर्वापररेखोपरिलम्बो भुज इत्येव दिग्मध्यगतस्य शङ्कोश्छायाग्र पूर्वापररेखयोरन्तरम्, दिग्मध्यगतशङ्कुच्छायाकर्णः, छायाग्रात्पूर्वापररेखोपरि लम्बो भुजः। भुजाग्राद्दिग्मध्यं (वृत्तकेन्द्र) यावत्पूर्वापररेखायां कोटिःततः छाया'-भुज-कोटिः, भास्कराचार्येणापि सिद्धान्त शिरोमणौ दिक् सूत्रसम्पातगतस्य शङ्कोश्छायाप्रपूर्वापरसूत्रमध्यमित्यादिना” तदेव कृध्यत इति ।५।। अब कोटि तापन को कहते हैं हि- भा.-पूर्वापररेखा से भुषाग्न में श्वङ्मूल समझना चाहिये । छाया भर भुज आ बर्मान्तर मूल यो होता है वही आयाम और शुषाग्र का अग्तर' पूर्वापरानकर कोटि होती है । - ये पूर्वापररेखा के अमर शम्य रेखा भूप है यही दिगमध्य (वृत्तकेन्द्र) दश चैकशता र पूर्वापर रेखा का अन्तर , बिग्मंत्रमतया कर्ण, शायान से