पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/२७८

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

त्रिप्रश्नाधिकारः फलम् । पश्चाद्विन्दुमनेन रव्ययनतः संचालयेद् अन्यान् स्त्रष्टा प्राच्यपराऽथवा ऽयनवशान् प्राग्विन्दुमुत्सारयेत्" अमुमेव श्रीपतिंप्रकारं दृष्ट्वा भास्करेणे ‘काला- बमजोवधोस्तु विवराद् भक्रीमित्याहनालम्बमाप्तमिताङ्गूलंग्यनदिइप्रेन्द्र स्फुटा चालिता' दं कथितम् । पर छायाकर्णवृत्तश्चित्रग्रान्तरदानानीचित्धान्नाह श्रीपत्याद्युक्तप्रकारेण स्फुटपूर्वापरदिशोर्जानमतस्तद् वास्तवनयनं प्रदश्यते । पू _ ने पू=स्थूलपूर्वादिक् प=स्थल पश्चिमादिक् । पूपके अर्धबिन्दुनः पूप (क) अर्धव्यासार्धेन वृत कार्यपूष रेखा वास्तव पूर्वापररेखाऽसमान्तरा पूबिन्दुनोऽ- ग्रान्तरसमा भुजान्तरसमा व रेखा पूर्णज्यारूपा (यून) देया (रे-४ अध्याय- युक्त्या) पन रेखा कार्या, पूनथ=k०, तदेयमेव रेख वास्तवपूर्वापररेखायाः समानान्तरा भवति ततो वास्तव वपर रेखाज्ञानं भवेदेवेति ॥१॥ अब त्रिप्रश्नाधिकार प्रारम्भ किया जाता है । तीन प्रश्नों (दिशा, देश, काल) का उत्तर जिसमें कहा जाता है, वह त्रिप्रश्नाधिकार है, उसमें पहले दिशा ज्ञान को कहते हैं। हि- भा.-पूर्वकपाल में पश्चिमकपाल में तुल्ययायाग्रद्वय में जो दो बिन्दु हैं उनमें प्रथम बिन्दु पश्चिम दिशा है, द्वितीय बिन्दु पूर्व दिशा है, पूर्वोकपाल भर पश्चिम कपाल में तुल्यछायाग्रद्वय की जो अति होती है उसके वश से भेद होता है, दोनों आणण्य के मध्य से शङ्कुसूलपर्यन्त ओ रेखा होती है वह दक्षिणोत्तर रेखा है, उसी में दक्षिण दिशा और उत्तर दिशा होती है । जसादि से समान ही हुई पृथ्वी में इष्ट दिन में मध्यान्ह कालिक छाया व्यास घं से वृत्त बनाकर उसके केन्द्र में द्वादश १२ इलुस शङ्कुं स्थापित करना, सूर्य के पूर्वोकपाल में रहने से उस शङ्कु का आवाग़ उस वृत्तपरिधि में यहां प्रवेश करता है वह बिन्दु स्थूल पश्चिम दिशा है, पश्चिम कपाल में सूर्य के रहने से शत्रु की यात्र पूर्वभाग में उस वृत्त परिधि में निर्गत होता है वह स्थूल पूर्व दिशा है, दोनों बिन्दु (म पूर्व पश्चिम) गतरेखा खूब पूर्वापर रेक्षा होती है, उसमें दोनों गानों के मध्य से अङ्कु मूत्रमत रेला दक्षिख़ोत्तर रेखा होती है इति ॥१॥ याप्रवेशकालिक पर निर्गमकमिक अति न सुखा से दोनों अधिक अश्वा भी अतुल्य होती हैं = :याप्रवेशआलिक सन्ति । कः =वनानिर्गमनविक