२४४ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते ऽन्यथा (विपरीतं) ऽर्थादुत्तरगोले सहितं दक्षिणगोले रहित कार्यमिति ॥ ५९॥ अहर्गणेन साधिता ग्रह्य लंकाक्षितिजोदयकलिका भवन्ति, ते देशान्तरफलेन संस्कृतास्तदो मण्डलकालिका भवन्ति, परन्वपेक्षितास्तु स्वक्षिनिजोदयकालिकाः उन्मण्डलस्वक्षितिजयोरन्तरे चरार्धम् तेनानुपातो यदि पबिटीभिर्गुहत्वला लभ्यन्ते तदा चरार्धघटीभिः कि समागच्छन्ति चरार्धघट्यन्तर्गतग्रहगतिकलाः आभिः कलाभिरुत्तरगोल उन्मण्डलकालिको ग्रहो हीन (उन्मण्डलात् स्वक्षिति जस्याधो विद्यमानत्वान्) स्तदा स्वक्षितिजोदयकदलिकग्रहो भवेत्। दक्षिणगोले स्वक्षितिजस्योन्मण्डलादुपस्थितत्वात्ताभिः कलाभिः सहितो ग्रहः (उन्मण्डलका- लिकः) स्वक्षितिजोदयकालिको भवेत् । परं चरार्धघट्यन्तर्गतग्रहगतिग्रहणमन्तर्वैवं भवितुमर्हति नगतिग्रहणन्त्वावश्यकमत आचार्योक्तचरफलसंकारो न शोभनः असकृत्कर्मणाऽत्र ग्रह औदयिको भवितुमर्हतीतिसकृत्कर्मणापि पूर्वं वासवो दयान्तरसाधने एकासुजेन गतिसङ्गणितैकलिप्तोत्पन्नास्वित्याद्युपपत्तौ भाज्यस्थाने यदि प्राचीन चरफलं गृह्य त तदा वास्तवं चरफलं समागच्छेदेवेति ॥ ५९ ॥ अब चरकर्म को कहते हैं। हि. भा–प्रहगति को चरखण्ड घटी से गुणा कर साठ से भाग देने से जो कलादि फल हो उसको उत्तर गोल में उदयकाल में ग्रह में ऋण करना, दक्षिण गोल में धन करना, अस्तकाल में विपरीत (उल्टा) अर्थात् उत्तर गोल में ग्रह में धन करना और दक्षिण गोल में ऋण करना चाहिये इति ॥५६॥ अहर्गण से सघित ग्रह लङ्काक्षितिजोदय कालिक होते हैं, उन में देशान्तर फल को संस्कार करने से उन्मण्डल कालिक होते हैं लेकिन अपेक्षित है स्वक्षितिजोदयकालिक ग्रह, उन्मडल और स्वक्षितिज के अन्तर में चरावें है, इसलिये अनुपात करते हैं, यदि साठ ६० षटी में ग्रहगति कला पाते हैं तो चरार्च घटी में क्या इससे चराधं घटी सम्बन्धिनी ग्रहगति कला आती है । इनको उत्तर गोल में उन्मण्डल से अपने क्षितिज को नीचा रहने के कारण उन्मण्डल कालिक ग्रह में से घटाने से स्वक्षितिजोदय कालिक ग्रह होते हैं। दक्षिण गोल में उन्मध्डस से अपने क्षितिज के ऊपर रहने के कारण पूर्वागत चराघं घटी सम्बन्धिनी ग्रहगति कला को उन्मराडल कालिक अह में जोड़ने से स्वक्षितिजोदय कालिक अह होते हैं। लेकिन धरायं धख्धन्तर्गत यो कुछ प्रहृति होगी उसका ग्रहण आचार्य ने नहीं किया है, लेकिन उसका अरू करना आबषयक है इसलिए आचार्योंक्त बरफलसंस्कार ठीक नहीं है, असकृत्कर्म से यहां
पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/२६१
दिखावट