पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/२१३

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१६६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते सम्बन्धिनी फलविकलाः =- ६० दिप२२५ज्याकेज्यान ३४२१४४३६०४त्रिदिप - _२०४२२५ ज्याकेज्यानत्रि_२२४३२७० ज्याकेज्यान २१४४३६०xत्रि १८४२१४xत्रि’ =२५X१६३५ ज्याकेज्यान _४०८७५; ज्याकेज्यान – १६१ज्याकेज्यान २१४xत्रि २१४ त्रि त्रि एवमेव चन्द्रपरिध्यन्तरवशेन तद्गुणकाङ्का उत्पद्यन्ते, सिद्धान्तशेखरे ‘तत्तिथ्यन्त नतोद्भवोत्क्रमगुणः क्षुण्णः स्वकेन्द्रज्यया, गोऽक्षाभ्रन्दुरसे ६१०५e रवेः शररसा गन्यब्ध्यश्विभिः २४३६५ शीतगोः। भक्तोऽथक्रमशो भवन्ति विकलास्ताः प्रगृणं स्वं रवौ पश्चाच्छीतकरेऽन्यथा क्षयफले हानिर्धनं चासकृच' ऽनेन श्लोकेन श्रीपतिनाऽऽचायक्तानुरूप कथितः । केवलमाचार्येण ३२७० मिता त्रिज्या गृहीता, श्रीपतिना च ३४१५ मिता त्रिज्या गृहीता, तज्जन्यो भाज्यभाजकयोः स्वल्पभेदः समुचित एव, आचायतनतज्यास्थाने श्रीपतिना नतोत्क्रमज्या हीताऽत्रकारणं लल्लाचार्यानुयायिचतुर्वेदाचार्यव्याख्यानमेवेति ॥२७-२८। अब प्रकारान्तर से नतकमें को कहते हैं। हि. भा–पहले दिनदल (दिनार्ध) परिधियों से जो स्पष्ट रवि और स्पष्टचन्द्र साधित हैं उनसे जो तिथ्यन्त हैं तात्कालिक नतज्या और केन्द्रज्या के घात करना, यदि वह रवि का है (अर्थात् रवि की नतज्या और रवि की केन्द्रज्या का घात है) तब उसको ११ इससे गुणकर त्रिज्यावर्गे १०६६२६०० से भाग देना, यदि वह घात चन्द्र का है (अर्थात् चन्द्र नतकालज्या और चन्द्रकेन्द्रज्या का घात है) तब उसको ४६e इससे गुणाकर त्रिज्यावर्ग १०,६६,२e०० से भाग देन, दोनों स्थानों में जो विकलात्मक फल होता है पूर्वंनत में सूर्य में ऋण करना, पश्चिम नत में सूर्य में घन करना, चन्द्र में प्राक् कपाल में ऋणात्मक मन्दफल रहने पर उस पूर्वागत केन्द्रफल को धन करना, अन्यथा प्राक् कपाल और पश्चिम कपाल में ऋण ही करना चाहिये, इस तरह असकृत्कर्म करने से स्फुटवि और स्फुटचन्द्र होते हैं । पहले ‘तद्धृष्टदलपरिध्यन्तगुण’ इत्यादि से नतकर्म साधित है, यहां पुनः उसका साघन किया गया है इसलिये ‘व’ शब्द का प्रयोग किया गया है इति ।। २७-२८ ॥ उपपत्ति दिनार्धपरिधि से पूर्व प्रकार से मन्दफुलकला= २२५xtदपKज्याके - विकलात्मक २१४४३६० २२५ दिप ज्याके ४६ करने से रवि के परिध्यन्तर - तब अनुपात करते हैं २१४X ३६० ३ त्रि ज्यन %, = यदि दिनाघी परिधि में पुर्वागत मन्दफल विफल पाते हैं तो आनीत (लाये हुये)