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पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/२१

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४ ब्राह्मस्फुटंसिद्धान्ते

प्रदक्षिणगम् ( दक्षिणावर्त्तक्रमेण चलायमानम् ) श्रादी ( सर्वप्रथमं ) ब्रह्मणा (जगदुत्पादकेन) सृष्टम् (रचितम्) श्रर्थादश्वित्यादी स्थितैश्चन्द्रादिभिस्तदुच्चनातादिभिश्व साकं ध्रुवयष्टथाघारेण भ्रमणशीलं ज्योति मं पदार्थानां नक्षत्रादीनां चक्रं (गोलं) ब्रह्मरणा रचितं यद्यप्यत्राचार्येणोच्चादीनां चर्चा न क्रियते तेषां स्वरूपा भावात् किन्तु सुष्टयादिकाले तेषामपि स्थानाङ्कनरूपसर्जनं कृतमिति ॥ ३ ॥

   अत्र ज्योतिश्चक्रशब्देन भचक्रम् भानां चक्रं भचक्रमेतावता यत्र भानि सन्ति स च गोलाकारः पदार्थः तदेव भचक्रशब्देन व्यवह्रियते भचके कथं गोलत्वं, भचक्रचलनज्ञानं, ग्रहाणां कथं पूर्वाभिमुखो गतिः चन्द्रादिग्रहाणां ( चन्द्रबुधशुक्र रविकुजगुरुशनीनां ) कथमेत्रमध्वविः क्रमेण स्थितिरित्यादि विविधविषयाणां विचारार्थं वटेश्वरसिद्धान्तोऽप्यवलोकनीयः भास्कराचार्येणापि सृष्ट्वा भचक्रं कम लोद्भवेन ग्रहैः सहैतद्भगणादिसंस्थे' रित्यादिना ब्रह्मगुप्तोत्तानुरूपमेव सर्वं कथितमिति ॥ ३ ॥
           भय ज्योतिःशास्त्र के मूलभूत ग्रहसहित भचक्रचलन को कहते हैं।
      हि. भा. - रेवती नक्षत्र घोर पश्विनी के मध्य में (सन्धि में) ग्रहों के साथ ध वास (दोनों घवों में गई हुई रेखा) में बंधे हुए दक्षिणावर्त क्रम से भ्रमणशील ज्योतिश्चक्र (भचक्र) को सब से पहले ब्रह्मा ने बनाया मर्यात् श्विन्यादि में स्थित चन्द्रादिग्रह और उनके उपवादियों के साथ प्रवयष्टि के पाधार पर भ्रमणशील नक्षत्र पादि ज्योतिष पिण्डों के चक्र (गोल) को ब्रह्मा ने बनाया। यद्यपि यहाँ मात्रायें उप आदि की चर्चा नहीं करते हैं क्योंकि उनके स्वरूप ग्रहों की तरह नहीं है किन्तु सृष्टि के आदिकाल में उनका भी स्थानाङ्कन किया ॥ ३ ॥
      यहाँ ज्योतिश्चक्र शब्द से भचक्र समझना चाहिए। भचक्र (नक्षत्रों के गोल) शब्द से ज्ञात होता है कि नक्षत्र और ग्रह सब जहां देखा जाता है गोलाकार पदार्थ है, उसी को भचक्र कहा गया है। भवन में गोलत्व क्यों है, मचक्रचलन क्या है और उसका ज्ञान कैसे होता है, ग्रहों की पूर्वाभिमुख गति क्यों है, ग्रहों (चन्द्र, बुध, शुक्र, रवि, भौम, गुरु, शनि) की इस तरह ऊर्ध्वाधः क्रप से स्थिति क्यों है, इत्यादि अनेक विषयों के विचार के लिए बटेश्वर सिद्धान्त का मध्यमाविकार देखना चाहिए। भास्कराचार्य भी 'सृष्ट्वा भचक्रं कमलोदुमवेन प्रहैः सहेतदुभगरणादिसंस्थेः' इत्यादि से ब्रह्मगुप्त के अनुरूप ही कहते हैं ॥ ३॥
           इदानीमनाद्यनन्तस्य कालस्य प्रवृत्तिमाह ।
           चैत्रसितावेरुदयाद् मानोदिनमा सवयुगकल्पाः ॥
           सृष्टपादौ लङ्कायां समं प्रवृत्ता दिनेऽर्कस्य ॥ ४ ॥
   वा. मा.—चैत्रशुक्लप्रतिपत्प्रभुति लंकोपलक्षितभूप्रदेशेऽर्कोदयाद्दिनोदयाः प्रवृत्ताः रविदिनवारः सुष्टघादौ कल्पादों ननु चैत्रदेरिति सिद्धं सितग्रहणमतिरिच्यतै इति चेन्न । यतोऽत्रं विप्रतिपन्ना बहवः कृष्णप्रतिपादिकं मासमिच्छन्ति तद्