पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/२०

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पुटपरिशीलयितुं काचित् समस्या अस्ति

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स्फुटोऽभिधीयते इति सष्टं न कथ्यते, तथापि ग्रहगणादिपठितमानानां समत्त्राद्विष्णुधर्मोत्तरपुराणान्तर्गन एव ब्रह्मसिद्धान्तः प्रमारणीभूतत्वेन (आगम त्वेन) स्वीकृतो ब्रह्मगुप्तेन, 'युगमाहुः पञ्चाब्द' मित्यादिना पञ्चवर्षमययुगस्य तन्त्रारी- क्षाध्याये संहिताकारमतं वर्णयितुर्ब्रह्मगुप्तस्य मते ज्यौतिषवेदाङ्ग ब्रह्ममतं नास्तीति स्पष्टम् । इदं वराहमिहिरमताद्भिन्नं सुगरणकैर्बोध्यम् । सिद्धान्ततत्त्वविवेके 'अहो विष्णुधर्मोत्तरं चापि सम्यङ् न बुद्धमिति' कमला करोक्तादपि तदेव सिद्धयति । बहुषु समयेषु व्यतीतेषु तत्र ब्रह्मसिद्धान्ते कीदृशी लथीभूतता समागता तन्निराकृति- ब्रह्मगुप्तेन कोशी कृतेति ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते कुत्रापि नोपलभ्यते । तत्कथनं तथ्यमतथ्यं वेति विवेचका गारिगतिका विवेचयन्विति ॥ २ ॥

अब ग्रन्थारम्भ करने के कारण को कहते हैं।

हि.भा. - ब्रह्मा से कथित ग्रहगणित (ब्रह्ममिद्धान्त) जो है, बहुत समय में (कालान्तर में ) उसमें खिलत्व श्रा गया है इसलिए में जिष्णुपुत्र ब्रह्मगुप्त उसको स्पष्ट कहता हूँ । इस समय ब्रह्मसिद्धान्न तीन प्रकार के उपलब्ध होते हैं। एक शाकल्यसंहितान्तर्गत, द्वितीय विष्णुधर्मो- त्तरपुराणान्तर्गत गद्यमय और तृतीय पञ्चवर्षमययुगवर्णनात्मक वराहमिहिरकृत पञ्चसिद्धा- न्तिकान्तर्गत, इन तीनों में ब्रह्मगुप्ताचार्य किसको स्फुट करते हैं इस बात को स्पष्टरूप से नहीं कहते हैं तयापि पठित ग्रहभगणादिमानों के समत्व के कारण विष्णुधर्मोत्तरपुराणान्तर्गत हो ब्रह्मसिद्धान्त को ब्रह्मगुप्त आगमत्व करके स्वीकार करते हैं, पचवर्षमय युग के तन्त्रपरीक्षाध्याय में 'युगमाहुः पश्चाब्द' इत्यादि से संहिताकार के मत को वर्णन करते हुए ब्रह्मगुप्त के मत. में ज्योतिष वेदाङ्ग ब्रह्ममत नहीं है, यह स्पष्ट है । वराहमिहिराचार्य के मत से यह विरुद्ध है इसका गणक लोग विचार करें। सिद्धान्त तत्वविवेक में ग्रहो विष्णुधर्मोत्तरं चापि सम्यङ् न बुद्धम् इत्यादि कमलाकरोक्ति से भी स्पष्ट है। बहुत समय में ( कालान्तर में ) उस ब्रह्मसद्धान्त में कैसी थीभूतता प्रा गई और ब्रह्मगुप्त ने उनके निराकरण किस तरह किये, ये बातें ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त में कहीं भी नहीं पाई जाती हैं, उनके कथन ठीक हैं या नहीं, विवेचक ज्योतिषी लोग विचार करें ॥ २ ॥

इदानीं ज्योतिः शास्त्रमूलभूतस्य सग्रहस्य भचक्रस्य चलनमाह।

ध्रुवताराप्रतिबद्धज्योतिश्चक्र प्रदक्षिरगगमादौ ।
पौष्णा श्विन्यन्तस्यैः सह ग्रहै हारगा सृष्टम् ॥३॥

वि.भा. - पौष्णाश्विन्यन्तस्यैः (पोष्णं रेवती, अश्विनी, तयोर्मध्य - (सन्धि-)- स्थित ) ग्रहै ( सूर्यादिभिः ) सह ( साकं ) ध्रुवताराप्रतिबद्धज्योतिश्चक्रं ( ध्रुवद्वयगतरेखा ध्रुवयी धूवाक्षो वा तन्निवद्धं ज्योतिश्चक्रं ज्योतींषि तेजोमयामि नक्षत्राण्यन्यानि विशिष्टानि च तेषां चक्रं समूहं (भचक्रमित्यर्थः)