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स्पष्टचिकारः १८५
अत्रोपपतिः ये किल पूर्व मन्दनौचोच्चवृत्तपरिधयः पठितास्ते दिनार्धकाल एव, ऋणे धने च फले पाक्पश्चिमोन्मण्डलस्थे रवौ चन्द्रे च ये परिधयस्तयोः (रविचन्द्रयोः),स्वस्वदिनर्धपठितपरिविना सहैतत्परिधेर्यदन्तरं तद्वस्चादनुपाते-यदि त्रिज्यातुल्यया नतकालज्ययेदं परिध्यन्तरं लभ्यते तदेष्टनतकालज्यया किमिति' नानेनेष्टपरिध्यन्तरं
समागच्छति, पठितपरिघा-( दिनार्धपरिधौ ) वेतदृणं धनं कार्यं तदेष्टस्थानीयः स्फुट: परिधिर्भवेदेवेति, सिद्धान्तशेखरे श्रीपतिना ‘तद्दिनार्धपरिधिद्वयान्तरेणाहता स्वनतशिञ्जिनीकृता । त्रिज्ययाऽथपरिधौ दिनार्धजे हीनके स्वमधिके त्वृणं स्फुटम्’ ऽनेनाऽऽचार्योक्तानुरूपमेव कथितमिति ॥ २२ ॥
अब इप्टनतकाल में स्फुट परिध्यानयन को कहते हैं
हि- भा.-इष्टनतज्या को प्राक् पश्चिम उन्मण्डल में रवि और चन्द्र के रहने से जो परिधि पहले कही गयी है पठित परिधि ( दिनाघं परिधि ) के साथ उसका जो अन्तर है उससे गुणा कर त्रिज्या से भाग देकर जो फल हो उसको दिनाघी परिधि में ऋण वा धन करना (जिस परिधि के साथ दिनार्घ परिधि का अन्तर करते हैं उस परिधि से दिनाधं परिधि ऊन हो तब दिनार्ध परिधि में जोड़ना, दिनार्घ परिधि के अधिक रहने से दिनाधं परिधि में पूर्वागत फल को ऋण करना) तव इष्टस्थानीय स्कुट परिवि होती है इति ॥२२।।
उपपत्ति
पहले जो मन्दनीचोच्चवृत्त परिधि पठित है वह दिनार्ध काल ही में, ऋण फल में और घन फल मेंप्राक् उन्मण्डल में और पश्चिमोन्मण्डल में रवि और चन्द्र के रहने से जो परिधि होती है उसको दिनाधं पठित परिधि के साथ जो अन्तर होता है उसके वश से ‘यदि त्रिज्यातुल्य नतकालया में यह परिध्यन्तर पाते हैं तो इष्टनतकालज्या में क्या' इस अनुपात से इष्टपरिध्यन्तर आता है, दिनाची परिधि (पठित परिधि) में इसको ऋण और घन करने से इष्टस्थानीय स्फुट परिधि होती है, सिद्धान्तशेखर में ‘तद्दिनार्धपरिविद्वयान्तरेणाहता' इत्यादि सस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोक से श्रीपति ने आचार्योक्तानुरूप हो कहा है इति ॥ २२॥
इदानीं मन्दफलस्य घनत्वमृणत्वञ्चाह मुजफलचापं केन्द्रे षड्राश्यूने रवाङ्णं मध्ये । स्वभुजफलचापमेवं षड्राश्यधिके घनं भवति ॥२३॥
चा. भा.--इदानीं स्वमन्दोच्चनीचस्फुटपरिधिना आगतस्य फलस्य धनर्णप्रदर्शयन्नाह । मध्ये रवौ स्वकर्मोद्भवं भुजफलचापं प्रागेव प्रदस्तितम् । यत्तदृणं भवति, षट्णश्युने - स्वमन्दकेन्द्रे यस्मात् प्रथमकेन्द्रपदे . फलमुग्रं