पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/२००

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१८ स्थिरा यतो मध्यग्रहान्मन्दान्यफलज्याव्यासार्धवृतमेंव मन्दपरिधिः, यस्याचार्यस्य समये या मन्दान्यफलज्योपलब्धा तदनुसारमेव मन्दपरिघिमानं स्वस्वसिद्धान्ते लिखितं तैरिति २०-२१॥ अत्रोपपत्तिः उपपत्तिसम्बन्वे चतुर्वेदाचार्येण ‘अत्रोपलब्धिरेव वासनेत्यभिहितम्’ भास्करा चार्येणाप्येतदनुकरणमेव कृतमिति ॥२०-२१॥ अब रवि और चन्द्र के स्पष्टीकरण के लिए मन्द परिध्यंशों को कहते हैं। हि- भा.-चौदह अंश में दो स्थानों में एक अंश के तृतीयांश (बीसकला) को घटाने से सूर्य के ऋणमन्द फल में वा घनमन्द फल में मध्य न्ह काल में मन्द परिध्यंश होता है, ऋणमन्दफल में वा धनमन्दफल में दिनार्ध से पूर्वक्रपाल में पञ्चदश १५ घटी कर के नत सूर्य के मध्यान्ह मन्दपरिघिमान में क्रम से एक प्रश के तृतीयांश (२० कला) को युद्ध और हीन करना चाहिए, दिनार्ध से पश्चिम कपाल में ऋणमन्दफल में और घनमन्दफल में मध्यान्ह परिघिमान में बीसकला को क्रम से हीन और युत करना तब पूर्वी और पश्चिम उन्मण्डलस्य सूर्य का मन्द परिध्रंश होता है । चन्द्र के ऋण या धन मन्दपल रहने पर बत्तीस ३२ में दो स्थानों में चौबीस २४ कला को घटा देना तब मध्यान्ह में उनके मन्द पर्ध्यिंश होते हैं। सूर्य ही की तरह पूर्वोकपाल में और पश्चिमकपाल में पञ्चदश १५ घट करके नत चन्द्र के ऋणमन्दफल में मध्यान्ह परिधिमान में बावन ५२ कला घटा देना, घनमन्दफल में पञ्चदश घटी करके नतचन्द्र के मध्यान्ह परिघिमान में ५२ कला को क्रम से युत और हीन करना तब पूर्व और पश्चात् उन्मण्डलस्य चन्द्र के मन्द परिध्रंश होता है। यथा. भुवि के ऋण मन्दफल में घन मन्दफल में मध्यान्ह में मन्द परिघि=१३°४०' मध्याह्न में मन्दपरिघि=१३°४०' प्राक् उन्मण्डलस्य सूची में=१४१० प्राञ् उन्मण्डलस्य सूर्य में=१३२•’ पश्चात् उन्मण्डलस्य सूर्य में-१३२० ’ पदबाव उन्मण्डलस्य सूर्य में=१४१० चन्द्र के ऋण मन्दफल में घन मन्दफल में मध्याह्नमन्दपरिघि=३१°३६' मध्याह्नमन्दपरिघि=३१३६ प्राक् उन्मण्डलस्य चन्द्र में=३०°४४ ’ प्राकू उन्मण्डलस्य चन्द्र में=३०४४ पश्चात् उन्मण्डलस्य चन्द्र में=३२२८’ पश्चात् उन्मण्डलस्य चन्द्र में=३०४४ आर्यभट के मत से रवि की मन्द परिचि=१३°३०', चन्द्र की मन्द परिचि= ३१°३०ब्रह्मगुप्त पठित परिधिमान को भौर आर्यभट पठित परिविमान को देखने से दोनों में कुछ अन्तर पड़ता है, सूर्यसिद्धान्त में ‘रवेर्मन्दपरिध्यंशा मनवः शीतगो रदाः युग्मान्ते । विषमान्ते च नखलिखोनितोस्तयोः'