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पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/१८५

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१६८ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते अब पूर्वानीत फल के ऋणत्व और घनत्व को उससे संस्कार वश भुजफल को कहते हैं। हि. भा.-मन्दकर्म में पदक्रम से पूर्वानीत फल ऋण, घन, धन, ऋण होते हैं, शीघ्र कर्म में इससे भिन्न होता है अर्थात् पद क्रम से धन, ऋण, ऋण, घन होते हैं, इस कारण से धन, धन का योग घन होता है, ऋण, ऋण का योग ऋण होता है, और धन, ऋण का अन्तर संस्कार वश से भुजफल घनमक और ऋणात्मक होता है, घन और ऋण के तुल्यत्व से भुजफलाभाव (शून्य) होता है इति ॥ १६ ॥ उपपत्ति प्रथम पद और द्वितीय पद मेषादि केन्द्र है, तथा तृतीय पद और चतुर्थे पद तुलादि केन्द्र है, मन्द कर्म में मुजफल के चाप के बराबर मन्द फल मेषादि केन्द्र में ऋण होता है। और तुलादि केन्द्र में धन होता है, इसलिये प्रथम पद और द्वितीय पद में भुजफल ऋण होता है, तृतीय पद में और चतुर्थे पद में भुजफल धन होता है क्योंकि उससे मन्द फल घनात्मक उत्पन्न होते हैं, द्वितीय पद में पूर्वागत भुजफल =परम भुजफल-परिधि $केउज्य, ३६ परिधि $केउज्या धन और ऋण के विलोम से--परम भुजफल+ इसी तरह चतुर्थे पद में ३६ , परिधिxकेउज्या धनात्मक, मेषादि केन्द्र में प्रथम पद के होने पूवगत भुजफल=परमभुफ ३६ के कारण प्रथम पद में भुजफल ऋण तथा तुलादि केन्द्र में तृतीय पद के होने के कारण वहां घन होता है, इस तरह पद क्रम से मन्द कर्म में फल ऋण, धन, धन, ऋण होते हैं, शीघ्र कर्म से इससे विलोम होता है क्योंकि शीघ्रकर्म में मेषादिकेन्द्र में शीघ्रफलधन होता है और तुलादिकेन्द्र में ऋण होता है इसी हेतु से वहाँ भुजफल भिन्न होता है, सिद्धान्त शेखर में श्रीपति ‘ऋणं क्रमादित्यादियुतिः स्वयोः स्वं ‘क्षययो:’ इत्यादि संस्कृतोपपत्ति में लिखित श्लोकद्वय से आवायक्त ‘तदुभुजफलकृतियोगाव' इत्यादि, 'क्षयधनधनक्षयास्तत्फ लानि’ इत्यादि श्लोकद्वय का पुनरुक्तीकरण ही किया है इति ।। १६ ।। वि. भा–(तच्चापं मन्दभुजफलस्य चापं) मन्दफलं पूवंसाधितफलयोर्योगा न्तरवशात् धनं वा ऋणं भवति । तद्युणितात् (पूर्वागतशीघ्रभुजफलेन गुणिताल्) व्यासार्धात् (त्रिज्यातः) कर्ण (शीघ्रकर्णी) भक्ताद्यल्लब्धं तस्य धनुः (चापं) शीघ्रफलं भवतीति ॥१७॥ अत्रोपपत्तिः तात्कालिककणीयमन्दभुजफलचापं मन्दफलं न भवितुमर्हति, पठितमन्द कणीयभुजफलस्य चापं मन्दफलं भवति कथमित्युच्यते ।