पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/९१

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·· बीजगणिते- सिद्धकरो, और उन दो करणियों में से एक करणो को ऋण मानलो । यहां 'सुधिया' इस हेतुगर्भलेख से यह प्रयोजन निकलता है कि जो उद्दिष्ट वर्ग में कईएक करणी ऋणगत होवें तो मूलकरणियों में से जिस करणी का ऋण होना संभव हो उसे ऋण कल्पना करो और जो वर्ग में सब करणियाँ घन होवें तो पक्ष में मूलकरणियों को ऋणात्मक भी मानो ॥ में उपपत्ति - ऋण और धनकरणियों का वर्ग एकही होता है परंतु करणी के वर्ग में करणी ऋण और धनकरणी के वर्ग में करणी धन होती हैं, इस दशा में वर्ग में करणी ऋणात्मक अथवा धनात्मक हो पर मूल तोङ्कों में समानहीं उचित हैं । उक्तविधि से रूप के वर्ग में ऋणकरणी घटा देने से धन होजाती है इसकारण रूप और उस करणी का योग धन होता है और रूपवर्ग में धनकरणी घटा देने से ऋण होजाती है इसलिये उसका और रूपका अन्तर होता है, बाद मूलाङ्क का साधन सुलभ है, इसलिये

  • धनात्मिकां तां परिकल्प्य -- ' यह कहा है। परंतु इस भांति धनात्मक

वर्गही का मूल आता है इस कारण 'यामिकैका-' यह कहा है ॥ २१ ॥ उदाहरणम्- त्रिसप्तमित्योर्वद मे करण्यो- विश्लेषवर्ग कृतितः पदं च ॥ १५ ॥ द्विक त्रिपञ्चप्रमिताः करण्यः स्वस्वर्णगा व्यस्तधनगा वा । तासां कृतिं ब्रूहि कृतेः पदं च चेरपड्डिधं वेत्सि सखे करण्याः ॥ १६ ॥