पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/४५५

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बीजगरिपते- ० ऋणशेष होने से गुणगुणित भाज्यका गुणतुल्य ऋणशेष होता है, यहां पूर्वोक्त कय ५४६ है वह ६ से गुण देने से ३२६४ हुआ इसमें कल्पित विक्रय ११० का भाग देने से ब्रब्धि धनशेषसंज्ञक २६ आई और शेष घनशेष संज्ञक १०४ रहा अथवा गुणगुणित राशि ३२९४ में गुणतुल्य ६ जोड़देने से ३३०० हुआ इसमें हर ११० का भागदेने से लब्धि ३० ऋणशेषसंज्ञक आई और शेष ऋणशेषसंज्ञक ६० रहा, केवल भाज्य ५४६ में रूप जोड़कर ५५० हर ११० का भाग देने से शेष शून्य रहता है इसलिये ऋण्णशेष १ गुण ६ से गुणाहुआ ६, गुणगुणित भाज्य ३२६४ के ऋण शेष ६ के तुल्य हुआ, यहां आचार्य ने कल्पित क्रय या १ को प्रथम गुण ६ से गुणकर या ६ उसमें हर ११० का भाग देकर जो कालकरूप लब्धि ग्रहणकी है वह ऋणशेष रूप है । अब गुणगुणित भाज्य के दो खण्ड कल्पना किये, पहिला खण्ड प्रथम गुणगुणित क्रय के तुल्य, दूसरा प्रथमगुण तुल्य, इनके योग में हरका भाग देने से ऋण शेषसंज्ञक प्रथम लब्धि आती है उसका स्वरूप यह है प्रगु. क्र १ प्रगु १ यहांपर ऐसींही लब्धि के ग्रहण करने से दूसरी आदि लब्धि के लिये अनुपात करना युक्त है, जैसा - यदि प्रथम गुण में प्रथम लब्धि मिलती है तो द्वितीय गुण में क्या इसप्रकार दूसरी लब्धि का स्वरूप हुआ द्विगु. क्र १ द्विगु १ यहां द्वितीय गुण से गुणे हुए क्रयमें द्वितीय गुण जोड़कर हरका भाग देने से द्वितीय लब्धि आती है वह भी ऋणशेषज्ञक है । इसीभांति तीसरे मुसा के द्वारा तीसरी लब्धि का स्वरूप सिद्ध हुआ गु. क्र १ तृगु १ ६ १